वमन कर्म

उत्पत्ति:- ‘वम्’ मे ल्युट प्रत्यय लगने से वमन शब्द बनता है।

पर्याय:- छर्दि,प्रच्छर्दन,निःसारन

परिभाषा:-

तत्र दोषहरणमूर्ध्वभाग वमनसंज्ञकम्।

वमन कप दोष में कराया जाता है।

वमन के योग्य:-

  • पीनस
  • श्वास
  • कास
  • कुष्ठ
  • अजीर्ण
  • उन्माद
  • विसर्प
  • हृदय रोग
  • अतिसार
  • पांडू
  • प्रमेह
  • नव ज्वर
  • ग्रंथि
  • अपची
  • कलरफुल
  • स्तन्य दुष्टि

वमन के अयोग्य:-

  • बाल
  • वृद्ध
  • सुकुमार
  • दुर्बल
  • क्षुधित
  • श्रान्त
  • अर्श
  • अतिकृश
  • अति स्थूल
  • चिंतित
  • उर्ध्वग रक्तपित्त
  • गुल्म
  • क्षतक्षीण
  • पिपासित

वमन द्रव्यों के गुण कर्म:-

  • उष्ण
  • तीक्ष्ण
  • सूक्ष्म
  • विकासी
  • व्यावायी
  • प्रभाव

वमन द्रव्य:- Trick :- (MGI KA DHAWAK)

  • मदन फल
  • जीमुतक
  • इक्षवाकु
  • धामार्गव
  • वत्सक
  • कृत्वेधन
  • देव दाली (उभय संशोधन)

श्रेष्ठ वामक द्रव्य:-

मदनफल

वमनोपग द्रव्य:-

  1. मुलेठी
  2. मधु
  3. कोविदार
  4. कर्बुदार
  5. नीप (कदंब)
  6. शनपुष्पी
  7. सदापुष्पी
  8. अपामार्ग
  9. हिज्जल
  10. बिंबी

वमन विधि :-

  1. पूर्व कर्म
  2. प्रधान कर्म
  3. पश्चात कर्म

(1) पूर्व कर्म :-

  • संभार द्रव्य संग्रह
  • आतुर सिद्धता
  • आतुर परीक्षा

(१) संभार द्रव्य :-

  • दूध
  • मुलेठी फांट
  • लवनोदक
  • कुर्शी
  • टेबल
  • नैपकिन
  • ग्लव्स

(२) आतुर परीक्षा:-

  • सत्व, सात्म्य, की परीक्षा करना
  • तापक्रम आदि की जांच करना।

(३) आतुर सिद्धता:-

  • वमन के एक दिन पहले कफ वर्धक आहार दिया जाता है।
  • वमन के दिन – यवागु +घी
  • स्नेहन,स्वेदन

(2) प्रधान कर्म:-

वमन औषध पिलाने के बाद से लेकर वमन के वेग आने तक की संपूर्ण प्रक्रिया प्रधान कर्म के अंतर्गत आते हैं। वमन औषध पिलाने से पूर्व रोगी को आकंठ दूध पानी इक्षु रस का पान कराया जाता है। तत्पश्चात वामक योग दिया जाता है।

वामक योग:-

  • मदनफल:- ४भाग
  • वचा वचा:- २भाग
  • सैंधव :- १भाग
  • मधु:- आवश्यकता अनुसार

वामक योग देते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है:-

ऊं ब्रह्मा दक्षा………….भैषज्यमिदमस्तु ते।।

वमन वेग :-

  • प्रवर वेग – 8
  • मध्यम वेग – 6
  • अवर वेग – 4

वमन में निकले द्रव की मात्रा:-

  • प्रवर वेग :- 2 प्रस्थ
  • मध्यम वेग :- 1.5 प्रस्थ
  • अवर वेग‌ :- 1 प्रस्थ

औषधपान से पूर्व से दुग्ध या इक्षुरस का आकण्ठ पान करवाया जाता है परन्तु जो द्रव (दुग्ध/इक्षु) पहले वेग में निकलता है उसकी मात्रा की गणना नहीं करनी चाहिए।

वमन के सम्यक् हीन व अतियोग का विश्लेषण

वमन होने के पश्चात् रोगी के लक्षणों का ध्यान से निरीक्षण करते हैं। हीन योग के लक्षण होने पर पुनः वापस द्रव्योषध देते हैं तथा अतियोग होने पर वमन क्रिया को रोककर अतियोग निवारक औषध देकर रोगी को विश्राम का हैं।

सम्यक् वमन होने के पश्चात् आगे की क्रिया धूमपान, संसर्जन क्रम आदि की तैयारी करते हैं।

सम्यक् वमन लक्षण (Features of adequate Vamana)

क्रमात् कफः पित्तमथानिलश्च यस्यैति सम्यक् वमितः स इष्टः। हत्पार्श्वमूर्धन्द्रियमार्गशुद्धौ तथा लघुत्वेऽपि च लक्ष्यमाणे।। (च. सि. 1/15)

क्रम से कफ-पित्त-वात का निकलना। मन का प्रसन्न होना। हृदय में, पार्श्व, शिर, इन्द्रियों के मार्ग की शद्धि और शरीर में हल्कापन बतलाया है।अग्नि का दीप्त होना। वमन के समय अधिक कष्ट न होना।

वमन व्यापद्

वमन के उपद्रव के कारण-

1. वैद्य द्वारा विधिपूर्वक वमन न कराना, 2. परिचारक का औषध का ठीक ढंग से योग नहीं बना पाना 3.औषध हीन मात्रा में प्रयुक्त करना 4. रोगी वमन में मनोयोग नहीं रखता है, तो इन कारणों से वमन के अयोग या अतियोग होने से 10 प्रकार के उपद्रव होते हैं

आध्मानं परिकर्तिश्च स्रावो हृद्गात्रयोर्ग्रहः। जीवादानं सविभ्रंशः स्तंभः सोपद्रवः क्लमः।अयोगादतियोगाश्च दशैता व्यापदो मताः। (च. सि. 6/29-30)

1. आध्मान, 2.परिकर्त, 3. साव, 4. हृद्ग्रह, 5. गात्रग्रह, 6. जीवादान, 7. विभ्रंश, 8. स्तम्भ, 9. उपद्रव और 10. क्लम।

सुश्रुतानुसार 15 व्यापद् है।

वैधातुर निमित्तं वमनं विरेचनं च पंचदशधा व्यापद्यते। तत्र वमनस्य अधोगतिरुर्ध्व विरेचनस्य इति पृथक् । सामान्यनुभयोः सावशेषौषधत्वं, जीर्णोषधत्वं हीन दोषापहृतत्वं, वातशूलं, अयोगो, अतियोगो, जीवादानम् आध्मानं, परिकर्तिका, परिस्रावः, प्रवाहिका, हृदयोपसरणं विबंधः इति।। (सु. चि. 34/3)

वमन उपद्रवों का उपचार

  1. वमन-प्रवृत्ति ठीक न होने मधुयष्टि फाण्ट में मदनफल और वच का चूर्ण 1-1 ग्राम डालकर बारम्बार पिलाते जायें।
  2. वमन वेग की सुगमता एवं पूर्णता के लिए सुखोष्ण लवणोदक (जल में नमक मिलाकर) पिलाये। 3. यदि अङ्गग्रह आदि उपद्रव उत्पन्न हों, तो औषध-पाचनार्थ दीपन-पाचन और बलकारक एवं शामक औषध दें।
  3. अयोगजन्य उपद्रवों के शमन हेतु निरुह (च. सि. 6/29) एवं अनुवासन (च. सि. 6/43-44) बस्ति देनी चाहिए।

हीन योग के लक्षण (Features of inadequate Vamana)

केवलस्य वाप्यौषधस्य, विभ्रंशोः विबंधो वेगानां अयोग लक्षणानि भवन्ति। (च. सू. 15/13)

दुच्छर्दिते स्फोटक कोठ कंडू हत्खाविशुद्धिर्गुरुगात्रता च। (च. सि. 1/16)

कफप्रसेकं हृदयाविशुद्धिं कण्डूं च दुश्छर्दितलिंगमाहुः। (सु. चि. 33/8)

वमन के वेगों का ठीक से न होना, एक-एक कर होना। केवल औषध का ही बाहर आना। शरीर में भारीपन का होना।कफप्रसेक तथा ज्वर का होना। हृदय में भारीपान

अतियोग के लक्षण (Features of excessive Vamana)

योगाधिक्येन तु फेनिलरक्त चंद्रिकोपगमनं इत्यतियोगलक्षणानि भवन्ति। (च. सू. 15/13)

पित्तातियोगं च विसंज्ञतां च हत्कंठपीडामपि चातिवांते।। (सू. चि. 33/8)

(1) वमन के अतियोग होने पर झागदार रक्चन्द्रिकाओं का निकलना। (2) तृष्णा की अधिकता।(3) मोह(4) मूर्छा का होना(5) वात का प्रकोप होना।(6) निंद्रा का नाश होना।(7) कण्ठ में पीडा का होना।(8) दाह होना (9) पित्त की अधिक प्रवृत्ति का होना

वमन के अतियोग की चिकित्सा:-

  1. शीतल जल से परिषेक कर घी-चीनी मिला हुआ कफहर मंथ देना चाहिए। उद्गार और मूर्छा में धनिया, नागरमोथा, मधुक (महुआ) और रसाञ्जन (रसौत) का चूर्ण मधु से देना चाहिए।
  2. यदि वमन करते हुए जिह्वा भीतर चली गयी हो तो स्निग्ध, अम्ल-लवण रसयुक्त, रुचिकर यूष, दुग्ध या का कवलधारण करायें। उसके सामने चटखारे देकर अम्लफल (इमली की चटनी) खाये जिसे देखकर रोगी की जीभ बाहर आ जाती है।
  3. जिह्वा यदि बाहर निकली हो तो उस पर तिल और मुनक्का के कल्क का लेप कर उसे हाथ से पकड़कर प्रविष्ट करायें।
  4. वाग्ग्रह या अन्य वातज रोग हो, तो स्नेहन-स्वेदन करे और घृत तथा मांसरस से सिद्ध पतली यावागु पिलायें।

पश्चात् कर्म (Paschat Karma)-

जब वमन बंद हो जाए तब से लेकर प्राकृत भोजन लेने तक सावधि में जो कर्म किए जाने के पश्चात कर्म के अन्तर्गत आते है।

(1) धूमपान (2) संसर्जन क्रम (3) संतर्पण

इसमें सर्वप्रथम जैविक मापन (Vital recording) जैसे- रक्तभार माप, नाडी आदि ज्ञात करते है।

धूमपान :-

धूमपान द्रव्यों से युक्त धूम वर्ती के द्वारा व्यक्ति को धूमपान दिया जाता है। इसमें शेष बचे कफ के निर्हरण के लिए धूमपान का प्रयोग किया जाता है।

संसर्जन क्रम:-

वमन होने बाद आमाशय में क्षोभ होने के कारण रोगी की अग्निमांद्य हो जाता है। अतः अग्नि की रक्षा हेतु लघु आहार की कल्पना की जाती है। जिससे मंद हुई अग्नि को पेया, विलेपी आदि के द्वारा क्रमशः सन्धुक्षित की जा सके।

यथाणुरग्निस्तृण गोमयाद्यै: संधुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण। महान् स्थिरः सर्वपचस्तथैव शुद्धस्य पेयादिभिरंतरग्निः।।

जैसे- अग्नि की अणुमात्र पर तृण या गोमय (गोबर के उपले) डालने से वह प्रचण्ड अग्नि बन जाती है उसी प्रकार संशोधन से शुद्ध व्यक्ति को अग्नि मंद हो जाती है वह पेयादि संसर्जन क्रम से महान, स्थिर और सभी आहार को पचाने वाली हो जाती है।

पेयां विलेपीमकृतं कृतं च यूसं रसं त्रिद्विरथैकश्च। क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः प्रधान मध्यावर शुद्धिशुद्धः।।

संतर्पण :-

संतर्पण योग्य औषधियों से व्यक्ति के बलवर्धन करना चाहिए।

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