सोऽयमायुर्वेदः शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादित्वात्, स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वात् भावस्वभावनित्यत्वाच्च। (च. सू. 30/27)
आयुर्वेद एक प्रामाणिक चिकित्सा विज्ञान है जो शाश्वत व नित्य है। इसके ज्ञान का प्रवाह सृष्टि के आदिकाल से है। पृथ्वीलोक से पूर्व यह ज्ञान स्वर्गलोक में था वहाँ इसके प्रथम अन्वेषणकर्ता परमपिता ब्रह्मा थे।
ब्रह्मा से विभिन्न प्रकार के प्रयोगों से परिष्कृत यह ज्ञान दक्ष प्रजापति को मिला। दक्ष प्रजापति ने यह ज्ञान अश्विनी कुमारों को दिया। अश्विनी कुमारों ने विभिन्न प्रकार के सैद्धान्तिक व प्रायोगिक कर्माभ्यास से समुन्नत कर इस ज्ञान को इन्द्र को दिया। स्वर्गलोक में स्थित आयुर्वेद के इन विभिन्न चिकित्सा कौशलों का उल्लेख वेदों में विशेषकर ऋग्वेद में लिपिबद्ध है।
स्वर्गलोक से आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान को महर्षियों (वैज्ञानिकों) के द्वारा लोक दया की भावना से पृथ्वीलोक पर लाया गया क्योंकि भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार व्यक्ति कर्मानुसार पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति हेतु जन्म लेता है। पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के लिए कालानुसार (100 वर्ष) स्वस्थ आयु की आवश्यकता होती है। परन्तु प्राचीन काल में पृथ्वीलोक पर उत्पन्न विघ्नभूत रोगों के कारण निर्धारित सुखायु को प्राप्त करना सम्भव नहीं हो पा रहा था।
अत: लोगों के दुःख को जानकर ऋषि-मुनियों ने जीवदया की भावना रखते हुए हिमालय के एक उपयुक्त स्थान पर समस्या निराकरणार्थ सम्भाषा का आयोजन किया जिसमें उन्हें विदित हुआ कि उत्पन्न रोगों का निवारण आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान से सम्भव है तथा आयुर्वेद का ज्ञान स्वर्गलोक में देवराज इन्द्र के पास है।
इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु महर्षियों ने भारद्वाज ऋषि को इन्द्र से ज्ञान प्राप्त करने हेतु नियुक्त किया जो त्रिसूत्र आयुर्वेद ज्ञान को स्वर्गलोक से भूलोक पर लेकर आये। स्वर्गलोक से प्राप्त त्रिसूत्र आयुर्वेद के सैद्धान्तिक पक्ष को सम्यक् रूप से समझकर तथा इसको कर्माभ्यास से समृद्ध व परिष्कृत कर महर्षि ने अन्य ऋषियों को प्रदान किया।
इन महर्षियों ने भी समयानुकूल संदर्भ में सूत्र रूप में प्राप्त ज्ञान को विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियों से अनुसन्धान कर और समुन्नत किया पृथ्वीलोक के रोग-रोगी-देश-काल के अनुसार इस ज्ञान को स्थापित किया, तथा नवीन अनुसन्धान कर उपवेशन अध्ययन-अध्यापन विधि से अपने शिष्य-प्रशिष्यों को दिया।
उन्होंने भी आयुर्वेद विज्ञान के इस प्रवाह को आगे बढाया जो कई सौ वर्षों बाद आज भी अपनी उपयोगिता से समाज को जीवनशैली (Life Style) बनकर संजीवनी प्रदान कर रहा है।
स्वर्गलोक से प्राप्त आयुर्वेद का स्वरूप तो सूत्र (संक्षिप्त) रूप में था जो आज एक विशाल वट वृक्ष के रूप में 15 विषयों में स्नातकोत्तर अध्ययन-अध्यापन के माध्यम से परिलक्षित हो रहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि आयुर्वेद में प्राचीनकाल से ही प्रत्येक स्तर पर लगातार अनुसन्धान होते रहे हैं।
स्वर्गलोक से पृथ्वीलोक पर आयुर्वेद अवतरण से लेकर आज तक यह विधा विभिन्न वैज्ञानिक मानक विधियों से स्थापित सिद्धान्तों, नवीन रोगों, उनकी नवीन चिकित्सा विधियों तथा औषध द्रव्यों के आधार पर ही समुन्नत रूप में हमारे सामने है जो इसके अनुसन्धान के स्वरूप को स्पष्ट करता है।
अनुसन्धान के इस स्वरूप को दो प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है :-
प्रथम – कालक्रमानुसार प्राप्त साहित्य की समीक्षा कर उसमें हुए अनुसन्धान के आधार पर –
जैसे – वैदिककाल में आयुर्वेद अनुसन्धान, ब्राह्मण ग्रन्थकाल में आयुर्वेद अनुसन्धान, उपनिषदकाल में आयुर्वेद अनुसन्धान, संहिताकाल में आयुर्वेद अनुसन्धान एवं संग्रहकाल में आयुर्वेद अनुसन्धान आदि।
दूसरा-आयुर्वेद के विभिन्न क्षेत्रों में हुए विकास की समीक्षा कर उत्तरोत्तर हुये अनुसन्धान के आधार पर –
जैसे-मौलिक सिद्धान्त के क्षेत्र में अनुसन्धान, भैषज्य कल्पना के क्षेत्र में अनुसन्धान, द्रव्यगुण के क्षेत्र में अनुसन्धान एवं रोग व चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसन्धान आदि।
(a) वैदिक काल में आयुर्वेद में अनुसन्धान –
प्राचीनकाल में हुए आयुर्वेदीय अनुसन्धान को जानने के लिए उस काल के ज्ञान को लिपिबद्ध करने वाले चारों वेदों का विश्लेषण करने पर यह ज्ञात हुआ है कि ऋग्वेद व अथर्ववेद में ही विशेष रूप से आयुर्वेद का विषय उपलब्ध है। यजुर्वेद में अल्प व सामवेद में यह विषय नगण्य है क्योंकि सामवेद में केवल 75 ऋचाएं ही स्वतंत्र हैं शेष ऋचाएं ऋग्वेद से ली गई हैं।
वेदों में आयुर्वेद में हुए अनुसन्धान पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि औषध द्रव्यों के संदर्भ में ऋग्वेद में 67 औषध द्रव्य प्रयुक्त हुए, यजुर्वेद में 82 औषध द्रव्य एवं अथर्ववेद में प्रयुक्त 289 औषध द्रव्यों का नामोल्लेख हुआ है।
उत्पन्न रोगों के संदर्भ में ऋग्वेद में राजयक्ष्मा, ग्राहि, पृष्ठामय, हृद्रोग, चर्मरोग, बन्धत्व व खालित्य रोग का, यजुर्वेद में इसके अतिरिक्त श्लीपद, कुष्ठ, श्वयथु व बलास का तथा अथर्ववेद में कास, हरिमा, किलास, जलोदर, गण्डमाला, मूत्राघात, अश्मरी, अर्बुद, विषमज्वर, मद, मूर्छा, छर्दि, ऊरूघात आदि बहुत से रोगों का नामोल्लेख हुआ है तथा रोगों को शपथ्य व वरुण्य (आहार निमित्तज तथा शापादिजन्य) बताया गया है।
इसी प्रकार शारीर के संदर्भ में ऋग्वेद में शरीर के अंग-प्रत्यंगों का ज्ञान तो था परन्तु उससे ज्यादा व स्पष्ट अंग-प्रत्यंगों का ज्ञान अथर्ववेद में वर्णित है। ऋग्वेद में त्रिदोष को त्रिधातु कहा गया है परन्तु अथर्ववेद में त्रिदोष को त्रिधातु तो कहा ही है साथ ही वात के पाँच भेदों का भी नाम स्पष्ट है, पित्त को मायु तथा कफ को बलास कहा है, यह प्रथम वेद ऋग्वेद से अन्तिम वेद अथर्ववेद तक के मध्य हुए अनुसन्धान को इंगित करते हैं।
ऋग्वेद में तीन प्रकार के विकार – आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक व तीन प्रकार के औषध द्रव्यों दिव्य, पार्थिव व आप्य का उल्लेख है। शल्य विधा के रूप में अंग प्रत्यारोपण का एवं कायचिकित्सा के रूप में सामान्य चिकित्सा के साथ विशेष रूप से संजीवनी विधा व रसायन का उल्लेख है। त्रिदोष को रोगों का समवायी कारण, कृमि को निमित्त कारण तथा दो प्रकार की चिकित्सा दोषप्रत्यनीक व व्याधिप्रत्यनीक का उल्लेख है।
औषधियों के रूप में ऋग्वेद में ‘औषधसुक्त‘ महत्त्वपूर्ण है। इसमें औषधियों के स्वरूप, स्थान, वर्गीकरण, उनके क्रमों एवं प्रयोगों का स्पष्ट उल्लेख है। औषधियों की शरीर में कार्मुकता का ज्ञान भी उस काल में था यह स्पष्ट है। परन्तु अथर्ववेद में आयुर्वेद का और भी समुन्नत स्वरूप था इसलिए आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है।
अथर्ववेद में शरीरस्थ अग्नि व पाचन क्रिया तथा धातु व्यापार का भी ज्ञान था। अग्नि भोजन का पाचन करती है तथा धातुऐं सात हैं व अन्तिम धातु शुक्र है जो सन्तानोत्पत्ति के काम आती है और सभी धातुओं का सार भाग ओज है। “ओजःप्रथमजं ह्येतत्।” (अर्थ. 1/35/2) आदि।
अथर्ववेद में कृमियों (Bacteria) की आकृति, भेद, अधिष्ठान का ज्ञान था, बच्चों के कृमियों का ज्ञान था तथा कृमि रोगों में सूर्य चिकित्सा तथा अग्नि के कृमिघ्न गुण का ज्ञान था। सूतिका रोग कृमिजन्य भी होता है, यह ज्ञान था। अजशृंगी, गुग्गुलु, पीला, नलदी, औक्षगन्धि, अश्वत्थ तथा महावृक्ष कृमिघ्न औषध है यह भी विदित था।
अथर्ववेद में दैवव्यपाश्रय व युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा विधियों का प्रचलन था। औषधियाँ आभ्यान्तर व बाह्य दोनों प्रकार से प्रयुक्त होती हैं यह ऋग्वेद व अथर्ववेद दोनों में उल्लेख है।
परन्तु वातरोगों में घृतनस्य, हृद्रोग व कामला में हरिद्रौदन भोजन, श्वेतकुष्ठ में कण्डे से रगड़कर भृगराज, हरिद्रा व नीली के पुष्प का लेप, गण्डमाला में शंख का लेप, रक्तविसावणार्थ जलौका, मूत्रपुरीषरोध में हरीतकी, कल्याणकारक वातनाशक औषध पिप्पली, गर्भधारणार्थ अपामार्ग, पृश्निपर्णी तथा मांसरोहण हेतु रोहिणी आदि औषध का ज्ञान द्रव्यगुण के क्षेत्र में हुए अनुसन्धान को अभिव्यक्त करता है।
शल्य विज्ञान व प्रसूति में महिला जनन अंगों का ज्ञान, सुख प्रसव हेतु मन्त्र चिकित्सा, गर्भ व गर्भिणी को आक्रान्त करने वाले जीवाणुओं का ज्ञान था।
प्रसव में योनिभेदन, अपची में शलाका से वेधन, मूत्रावरोध में शलाका से मूत्र निष्कासन, सूर्य चिकित्सा, अग्नि चिकित्सा आदि का ज्ञान शल्य चिकित्सा में किये गये अनुसन्धान को इंगित करता है।
इसके अलावा विषविज्ञान, शालाक्य, भूतविद्या, रसायन व वाजीकरण का भी पूर्ण ज्ञान अथर्ववेद काल तक चिकित्सकों ने प्राप्त कर लिया था। उस समय तक आयुर्वेद का स्पष्टतः अष्टांग विभाजन तो नहीं हुआ था परन्तु चिकित्सकों को अष्टांग आयुर्वेद का पूर्ण ज्ञान था इस प्रकार वेदों में प्रत्येक क्षेत्र में आयुर्वेद में अनुसन्धान हुए जिससे वह लगातार उन्नति को प्राप्त कर रहा था।
(b) ब्राह्मण ग्रन्थ काल में आयुर्वेद में अनुसन्धान
ऋतुजन्य विकारों के क्रम में ब्राह्मण ग्रन्थों में विशेष रूप से याज्ञिक क्रियाओं का उल्लेख है। व्याधियाँ ऋतु संधिकाल में होती हैं तथा वर्तमान ऋतु का अन्तिम सप्ताह व अग्रिम ऋतु का प्रथम सप्ताह ऋतुसन्धि कहलाता है। इसमें विशेष रोग होते हैं इसलिए ऋतुसन्धि में सहसा नवीन आहार विधि नहीं अपनानी चाहिए। इसमें रोगों से बचने के लिए सुगन्धित, पुष्टिकारक, मिष्टद्रव्य व रोगनाशक द्रव्य डालकर यज्ञ कर्म करने का विधान है।
बसन्त ऋतु में दानेदार ज्वर (चेचक, टाइफाइड) जिसे बंग्ला में बसन्त ज्वर कहते हैं उससे बचने के लिए “नव शस्येष्टि यज्ञ” का विधान है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में शरीर को आधुनिकों के समान छ: भागों में बाँटा गया है तथा 360 अस्थियाँ भी बतायी गई है। पाँच अग्नियों (भूताग्नि) का भी उल्लेख है। कृमियों की रोग उत्पत्ति में कारणता तथा यज्ञ से उनका निवारण आयुर्वेदीय अनुसन्धान को ही इंगित करता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में 130 औषधियों एवं 28 रोगों का नाम भी आया है।
(c) उपनिषद् काल में आयुर्वेद में अनुसन्धान –
उपनिषद काल तक आयुर्वेद में और नवीन अनुसन्धान हुए जिसमें आयुर्वेद का और परिष्कृत स्वरूप सामने आया है। आहार पाक की प्रक्रिया में अन्न का स्थूल, सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म पाक का विधान है। आहार-रस के रस व किट्ट दो भाग होते हैं। रस के स्थूल व सूक्ष्म दो भाग होते हैं, यह चिकित्सकों को ज्ञान हो गया था।
रोगों के क्षेत्र में कुष्ठ के भेद पामा का ज्ञान, शरीरक्रिया के क्षेत्र में हृदय की क्रियाविधि का ज्ञान, भूतविधा, पुरुष व रोगोत्पत्ति का कारण आदि विषयों का ज्ञान उपनिषद काल तक चिकित्सकों को हो गया था।
षोडश कला पुरुष, एषणा विषयक विचार, गर्भोत्पत्ति में यथेष्ट गर्भ प्राप्ति हेतु विविध प्रकार के भोजनों का निर्देश, केवल अनुसन्धान से ही जाना जा सकता है। षड् रसोत्पत्ति द्रव्यगुण में हुए अनुसन्धान की द्योतक है।
दश प्राणायतन, त्रिदोष सिद्धान्त में वात के स्पष्ट पाँच भेद, चतुष्पाद सिद्धान्त आदि का ज्ञान भी चिकित्सा विज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नत अवस्था को इंगित करता है क्योंकि आगे चलकर संहिताओं में इन्हीं का विस्तृत स्वरूप देखने को मिलता है।
आयुर्वेद का लिपिबद्ध स्वरूप उपनिषद काल के कुछ समय पश्चात् ही अग्निवेश तंत्र व सुश्रुत संहिता के रूप में उपलब्ध हो गया था जो नवीन अनुसन्धानों से वेद-ब्राह्मणग्रन्थ-आरण्यक व उपनिषदों में प्राप्त आयुर्वेद के विषय से बहुत समुन्नत अवस्था में था।
आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन स्पष्ट रूप से इस समुन्नत अवस्था को इंगित करता है। आचार्य चरक ने अग्निवेश तंत्र को मनुस्मृति काल में प्रतिसंस्कृत कर नवीन स्वरूप प्रदान किया तथा सुश्रुत द्वितीय ने याज्ञवल्क्य स्मृति काल में सुश्रुत संहिता का प्रतिसंस्कार किया।