उद्वर्तन/उबटन के गुण
उद्वर्तन कफहरे मेदसः प्रविलायनम् ॥
स्थिरीकरणामङ्गानां त्वक्प्रसादकरं परम् ॥15॥
- व्यायाम के पश्चात् कफहर (कषाय-तिक्त) द्रव्यों से उद्वर्तन (उबटन) करना चाहिए।
- उद्वर्तन मेदोधातु का विलयन, अंग-प्रत्यंग को स्थिर (दृढ़) तथा त्वचा को कर कान्तियुक्त करता है।
- जौ या चने के आटे में तेल और हल्दी मिलाकर शरीर पर मसलने को उद्वर्तन, उत्सादन या उबटन कहा जाता है।
स्नान के गुण
दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जाबलप्रदम् ।
कण्डूमलश्रमस्वेदतन्द्रातृड्दाहपाप्मजित् ॥16॥
- स्नान जठराग्निदीपक, वृष्य (शुक्रवृद्धिकारक), आयुष्य (आयुर्वर्द्धक), उत्साहशक्ति तथा बलप्रद होता है और कण्डू (खुजली), मल, श्रम, स्वेद (पसीना), तन्द्रा (जम्भाई), तृषा (प्यास), दाह तथा पाप (रोग) को नष्ट करता है।
उष्ण-शीत जल का प्रयोग
उष्णाम्बुनाऽधःकायस्य परिषेको बलावहः ।
तेनैव तूत्तमाङ्गस्य बलहृत्केशचक्षुषाम् ॥17॥
- उष्ण जल से अध:काय (कटि के नीचे) का परिषेक (स्नान) बलकारक होता है,
- किन्तु उष्ण जल से शिर का स्नान केशों एवं नेत्र की शक्ति को नष्ट करता है।
स्नान का निषेध
स्नानमर्दितनेत्रास्यकर्णरोगातिसारिषु ।
आध्मानपीनसाजीर्णभुक्तवत्सु च गर्हितम् ॥18॥
- अर्दितरोग (मुख का लकवा), नेत्ररोग, मुखरोग, कर्णरोग, अतिसार रोग, आध्मान (Flatulence / वायु से उदर का भर जाना), पीनस (जीर्ण प्रतिश्याय) रोग, अजीर्ण रोग तथा भोजन के पश्चात् स्नान नहीं करना चाहिए ।