गमनादि का निर्देश
चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छायाभस्मतुषाशुचीन् ।
नाक्रामेच्छर्करालोष्टबलिस्नानभुवो न च।।33।।
- चैत्य (किसी देवता से अधिष्ठित लोक-प्रसिद्ध वृक्ष अथवा मन्दिर), पूज्य (गुरुजन), ध्वजा (पताका, झण्डा) तथा अशस्त (अमंगल वस्तु) की छाया को लांघकर नहीं जाना चाहिए।
- भस्म (राख की ढेर), तुष (रेत), लोष्ट (मिट्टी का ढेला), बलिभूमि (जहाँ किसी देवता के निमित्त बलि या उपहार दिया हो) तथा स्नानभूमि (जहाँ किसी ने स्नान किया हो) पर पाँव नहीं रखना चाहिए।
निषिद्ध -कार्य
नदीं तरेन्न बाहुभ्यां, नाग्निस्कन्धमभिव्रजेत् ॥34॥
सन्दिग्धनावं वृक्षं च नारोहेद्दुष्टयानवत् ।
- बाहुओं से नदी में नहीं तैरना चाहिए अर्थात् तैरकर नदी को पार नहीं करना चाहिए।
- अग्निस्कन्ध (जलती अग्नि) के समीप नहीं जाना चाहिए।
- संदिग्धनावं – शिथिलबन्धन वाली, जर्जर तथा पारगमन में असमर्थ नौका एवं संदिग्ध वृक्ष-विषादि निर्दिष्ट, देवताधिष्ठित तथा भंगुर (खोखले) वृक्ष पर नहीं चढ़ना चाहिए।
छींक आदि करने की विधि
नासंवृतमुखः कुर्यात्क्षुतिहास्यविजृम्भणम् ॥35॥
- मुख को ढके बिना न छीकें, न हंसे और न जम्भाई लें।
आगिंक चेष्टाओं का निषेध
नासिकां न विकुष्णीयान्नाकस्माद्विलिखेद्भुवम् ।
नाङ्गैश्चेष्टेत विगुणं, नासीतोत्कटकश्चिरम् ॥36॥
- नासिका-छिद्रों को अंगुली डालकर नहीं कुरेदना चाहिए।
- बिना कारण भूमि को अंगुलियों से न खोदे (यह लक्षण विषदाता का कहा गया है)।
- हस्त-पाद आदि से (विगुण) विकृत चेष्टाएँ न करें तथा उत्कट आसन पर न बैठे, इससे अर्श आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
शारीरिक चेष्टाओं की मात्रा
देहवाक्चेतसां चेष्टाः प्राक् श्रमाद्विनिवर्तयेत्।
नोर्ध्वजानुशि्चरं निश्चिरं तिष्ठेत —
- शरीर, वाणी एवं मन की चेष्टाओं (कार्यों ) को थकान होने से पहले ही रोक देना चाहिए। (इस विषय को वाग्भट ने सद्वृत्त में दिया है, चरक ने इसे व्यायाम के लक्षणों में कहा है)
- घुटनों को बहुत देर तक ऊपर की ओर उठाकर न लेटे।
– नक्तं सेवेत न द्रुमम् ।।37।।
तथा चत्वरचैत्यान्तश्चतुष्पग्रसुरालयान्।
सुनाटवीशून्यग्रहश्मशानानि दिवाऽपि न ॥ 38॥
- रात्रि में वृक्ष के नीचे या ऊपर नहीं रहना चाहिए।
- चत्वर (त्रिपथ अर्थात् त्रिमुहानी), चैत्य के समीप, चतुष्पथ (चौराहा), सुरालय (देवगृह या मद्यशाला), सूना (वधस्थान), अटवी (निर्जन देश), शून्यगृह (निर्जन मन्दिर), श्मशान (शवदाहस्थान) में दिन में भी नहीं रहना चाहिए।
सर्वथेक्षेत नादित्यं, न भारं शिरसा वहेत् ।
नेक्षेत प्रततं सूक्ष्मं दीप्तामेध्याप्रियाणि च ॥39॥
- सूर्य को एकटक होकर नहीं देखना चाहिए। शिर पर भार लेकर न चलें।
- सूक्ष्म, दीप्त (तेजस्वी), अमेध्य (अशुचि) तथा अप्रिय पदार्थों को लगातार नहीं देखना चाहिए।
मद्यविक्रय आदि का निषेध
मद्यविक्रयसन्धानदानादानानि नाचरेत् ॥
- मद्य का विक्रय, सन्धान (उत्पादन), दान एवं आदान (ग्रहण) नहीं करना चाहिए।
त्याज्य आचरण
पुरोवातातपरजस्तुषारपरुषानिलान् ।। 40।।
- पूर्व दिशा की ओर से बहने वाली वायु का, सामने से आने वाली वायु का, आतप (धूप) का, रज (धूल) का, तुषार (ओस या हिमपात) तथा रूक्ष वायु का परित्याग करना चाहिए।
अनृजुः क्षवथूद्गारकासस्वप्नान्नमैथुनम्।
कूलच्छायां नृपद्विष्टं व्यालदंष्ट्रिविषाणिनः ॥41॥
- अनृजु (टेढ़ी-मेढ़ी स्थिति में) होकर क्षवथु (छींक), उद्गार (डकार), कास (खाँसी), स्वप्न (शयन), अन्न (भोजन) तथा मैथुन का परित्याग करना चाहिए।
- नदी के तट पर खड़े वृक्षों की छाया, मदिरापान, व्याल (नरभक्षी-पशुभक्षी – सिंह), दंष्ट्रिण (दाँत वाले – सर्प, कुत्ता) तथा विषाणिन: (सींग वाले – महिष) आदि से बचना चाहिए।
- कूल = नदी का तट
हीनानार्यातिनिपुणसेवां विग्रहमुत्तमैः ।
सन्ध्यास्वभ्यवहारस्त्रीस्वप्नाध्ययनचिन्तनम् ।।42।।
- हीन (नीच), अनार्य (अधम) तथा अतिनिपुण (चतुर) की सेवा तथा उत्तम (सदाचार युक्त) पुरुषों से विग्रह (झगड़ा) नहीं करना चाहिए।
- संध्या काल में अभ्यवहार (भोजन), स्त्री (मैथुन), स्वप्न (निद्रा), अध्ययन एवं चिन्तन नहीं करना चाहिए।
शत्रुसत्रगणाकीर्णगणिकापाणिकाशनम् ।
गात्रवक्त्रनखैर्वाद्यं हस्तकेशावधूननम् ॥43॥
- शत्रु का (यज्ञ में बना हुआ भोजन), गण (समुदाय), आकीर्ण (इधर-उधर फैला हुआ), गणिका (वेश्या) एवं पणिक (होटल) का भोजन नहीं करना चाहिए।
- गात्र (अंग), वक्र (मुख) तथा नख से बाजा बजाने की नकल न करें।
- हाथ एवं केशों का अवधूनन (कम्पन) नहीं करना चाहिए।
- प्रायः हाथों तथा केशों का कम्पन उन्माद रोग का लक्षण है। चेतन अवस्था में यह कृत्य शिष्टाचार के विरुद्ध है।
तोयाग्निपूज्यमध्येन यान धूमं शवाश्रयम् ।
मद्यातिसक्तिं विश्रम्भस्वातन्त्र्ये स्त्रीषु च त्यजेत् ॥44॥
- जल, अग्नि एवं पूजनीय जनों के बीच में से होकर इधर-उधर नहीं जाना चाहिए।
- श्मशान में चिता के धुआँ से दूर रहें, मद्य (मादक पदार्थों के सेवन) का अभ्यासी न बनें।
- स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिए तथा नारियों को स्वतंत्रता नहीं प्रदान करनी चाहिए।
अन्य सदुपदेश
आचार्यःसर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः ।
अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः ॥45॥
- सभी प्रकार का व्यवहार सीखने के लिये (धीमतः) बुद्धिमान् मानव के लिये संपूर्ण संसार ही शिक्षक अर्थात् उपदेष्टा है, फिर भी सांसारिक अर्थ (स्वार्थ-परार्थ) की परीक्षा (क्या करने में हित है और क्या करने में अहित है) हेतु संसार का अनुकरण करना चाहिए।
‘कृत्स्नो हि लोको बुद्धिमतामाचार्यः, शत्रुस्य अबुद्धिताम्’ (च.वि. 8/14)
- अर्थात् बुद्धिमान् का सारा संसार ही गुरु है और मूर्ख का सम्पूर्ण विश्व शत्रु है।
सदाचार सूत्र
आर्द्रसन्तानता त्यागः कायवाक्चेतसां दमः ।
स्वार्थबुद्धिः परार्थेषु पर्याप्तमिति सद्व्रतम्।।46।।
- (आर्द्रसन्तानता) परम दयालुता, (त्याग) दान, शरीर, वाणी एवं मन पर नियन्त्रण तथा ( परार्थेषु) दूसरो के अर्थों में स्वार्थबुद्धिः (अपनापन) रखना यह (पर्याप्त) सम्पूर्ण सदाचार है।
विचार – पद्धति
नक्तंदिनानि मे यान्ति कथम्भूतस्य सम्प्रति ।
दुःखभाड़्न भवत्येवं नित्यं सन्निहितस्मृतिः।।47।।
- इस समय मेरे रात-दिन किस प्रकार बीत रहे हैं, मैं कैसा होता जा रहा हूँ ?
- इस प्रकार का प्रतिदिन ध्यानपूर्वक विचार करने वाला मनुष्य कभी दुःखी नहीं होता है।
सद्वृत फल
आयुरारोग्यमैश्वर्य यशो लोकांश्च शाश्वतान्।। 48।।
- जिसका पालन करने पर दीर्घायु, आरोग्य (उत्तम स्वास्थ्य), ऐश्वर्य (धन-सम्पत्ति), सुयश, तथा शाश्वत लोक (स्वर्ग आदि लोक) को प्राप्त होता है।