रोग का धर्मादि प्राप्ति में बाधकत्व
धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ॥१५॥
रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ।
प्रादुर्भूतो मनुष्याणामन्तरायो महानयम् ॥१६॥
कः स्यात्तेषां शमोपाय इत्युक्त्वा ध्यानमास्थिताः ।
अथ ते शरणं शक्रं दद्दशुर्ध्यानचक्षुषा ॥१७॥
स वक्ष्यति शमोपायं यथावदमरप्रभुः ।
- आरोग्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थ का उत्तम (प्रधान) मूल है ।
- रोग उसी कल्याणकारी और मूलस्वरूप आरोग्य को (जीवन) को नष्ट करने वाला है।
- यह रोग मानवजगत में बहुत बड़ा विघ्नस्वरूप उत्पन्न हुआ है। इस रोग की शान्ति का उपाय क्या होगा, ऐसा कह कर महर्षिगण इस रोग की शान्ति का मार्ग निकालने के लिए ध्यानस्थ हो गए।
- जब महर्षिगण ध्यानस्थ हो गए तब ध्यानावस्था में ही वे दिव्यदृष्टि से यह देखे कि शक्र (इन्द्र ही हम लोगों के लिए शरण हैं अर्थात यदि उनके शरण में हम लोग जायेंगे तो वह अमरप्रभु ( देवताओं के स्वामी) यथावत् उचित रूप में रोगों की शान्ति का उपाय बतायेंगे ।
पुरुषार्थ चतुष्ट्य → धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष त्रिवर्ग → धर्म, अर्थ, काम
भरद्वाज की नियुक्ति तथा इन्द्र से वार्ता
कः सहस्राक्षभवनं गच्छेत् प्रष्टुं शचीपतिम् ॥१८॥
अहमर्थे नियुज्येऽयमत्रेति प्रथमं वचः ।
भरद्वाजोऽब्रवीत्तस्मादृषिभिः स नियोजितः ॥१९॥
स शक्रभवनं गत्वा सुरर्षिगणमध्यगम् ।
ददर्श बलहन्तारं दीप्यमानमिवानलम् ॥२०॥
सोऽभिगम्य जयाशीर्भिरभिनन्द्य सुरेश्वरम् ।
प्रोवाच भगवान् धीमानृषीणां वाक्यमुत्तमम् ॥२१॥
व्याध्यो हि समुत्पन्नाः सर्वप्राणिभयङ्कराः ।
तद् ब्रूहि मे शमोपायं यथावदमरप्रभो ॥२२॥
तस्मै प्रोवाच भगवानायुर्वेदं शतक्रतुः ।
पदैरल्यैर्मतिं बुद्ध्वा विपुलां परमर्षये ॥२३॥
- (जब यह निश्चित हो गया कि शान्ति का उपाय इन्द्र ही बताने में समर्थ हैं) तब इन्द्र से पूछने के लिए इन्द्रभवन कौन जा सकता है (क्योंकि अधिक तपोबल से ही इस मनुष्य शरीर से स्वर्ग में जाया जा सकता है, तो जो जाने में समर्थ हो वह स्वयं कहे।
- ऐसे प्रश्न पर परम तपस्वी और इन्द्र के भवन तक जाने में समर्थ भरद्वाज ने कहा कि इस कार्य में मैं लगाया जाऊँ, अतः सभी महर्षिगण भरद्वाज को ही इन्द्र के पास जाने के लिए नियुक्त किए वह भरद्वाज इन्द्र के भवन में जाकर, अग्नि के समान देदीप्यमान, देवता और ऋषियों के मध्यभाग में वर्तमान और जो बल नामक दैत्य को मार चुके हैं ऐसे इन्द्र को देखे।
- भरद्वाज ऋषि इन्द्र के पास जाकर आपकी जय हो ऐसे आशीर्वाद से इन्द्र का अभिनन्दन करने के बाद बुद्धिमान् भगवान भरद्वाज ने ऋषियों के उत्तम वाक्यों को इन्द्र से कहा।
- सभी जीवधारियों के लिए भय देने वाले रोग उत्पन्न हो गए हैं अतः हे अमरप्रभु! उचित रूप में उन रोगों की शान्ति का उपाय मुझसे कहिए।
- तब भगवान इन्द्र ने भरद्वाज को परम बुद्धिमान समझकर थोड़े ही शब्दों के द्वारा सम्पूर्ण आयुर्वेद का सूत्र रूप (संक्षेप रूप) में उपदेश कर दिया।
इन्द्र के पर्याय - सहस्राक्ष, शचीपति, शक्र, बलहन्तारं, सुरेश्वरम्, अमरप्रभु, शतक्रतु
त्रिसूत्र आयुर्वेद का स्वरूप
हेतुलिङ्गौषधज्ञानं स्वस्थातुरपरायणम् ।
त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं बुबुधे यं पितामहः ॥२४॥
- स्वस्थ एवं आतुरों के लिए पर (उत्तम) अयन (मार्ग) बताने वाला, हेतु (निदान) लिङ्ग (लक्षण) औषध-ज्ञान शाश्वत (नित्य), पुण्य देने वाला और जिस आयुर्वेद को ब्रह्मा ने स्वयं जाना था वह त्रिसूत्र आयुर्वेद है॥२४॥
त्रिविध हेतु संग्रह - मिथ्या न चाति त्रिविध हेतु - असात्म्य इन्द्रियार्थ संयोग, प्रज्ञापराध, परिणाम लिङ्गसूत्र - पूर्वरूप, रूप, उपशय, अनुपशय, सम्प्राप्ति त्रिसूत्र/त्रिस्कन्ध - हेतु, लिङ्ग, औषध
सोऽनन्तपारं त्रिस्कन्धमायुर्वेदं महामतिः ।
यथावदचिरात् सर्वं बुबुधे तन्मना मुनिः ॥२५॥
- वह महाबुद्धिमान् मुनि भरद्वाज (महामति) शीघ्र ही जिस आयुर्वेद का न आदि है न अन्त है ऐसे त्रिस्कन्ध (हेतु-लिङ्ग औषधयुक्त) सम्पूर्ण आयुर्वेद को ध्यानपूर्वक अध्ययन करते हुए ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त कर लिये ।
भरद्वाज द्वारा ऋषियों का आयुर्वेद का उपदेश
तेनायुरमितं लेभे भरद्वाजः सुखान्वितम् ।
ऋषिभ्योऽनधिकं तच्च शशंसानवशेषयन् ॥२६॥
- आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञान और उसका अनुष्ठान कर भरद्वाज ने सुखयुक्त अमित आयु को प्राप्त किए और जो आयुर्वेद का उपदेश इन्द्र से प्राप्त किए थे वे सभी उपदेश ऋषियों को सुना दिये।
ऋषयश्च भरद्वाजाज्जगृहुस्तं प्रजाहितम् ।
दीर्घमायुश्चिकीर्षन्तो वेदं वर्धनमायुषः ॥२७॥
- दीर्घ जीवन की इच्छा करते हुए ऋषिगण प्रजाहितकर और आयु को बढ़ाने वाले वेद (आयुर्वेद) को भरद्वाज से ग्रहण किया ।