प्राणिमात्र के लिए जीवन के प्रारम्भ (गर्भाधान) से लेकर जीवन-पर्यन्त आहार का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । भोजन के द्वारा ही जीवन के महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित होते है –
- शारीरिक कार्यों हेतु ऊर्जा प्रदान करना ।
- शरीर की चयापचय प्रक्रियाओं हेतु ।
- शरीर की वृद्धि एवं विकास में ।
- शरीर में प्रत्येक क्षण हो रहे क्षरण के पुनः निर्माण हेतु ।
आयुर्वेद संहिताओं में बाल्यकाल में होने वाली 4 अवस्थाओं का विवेचन है –
कृशता
फक्करोग (श्लैष्मिक, गर्भज एवं व्याधिज फक्क)
पारिगर्भिक
बालशोष
१. कृशता
- कृशता की गणना चरक संहिता में अष्टौनिन्दनीय प्रकरण में की गई है।
‘शुष्कस्फिगुदरग्रीवो धमनीजालसन्ततः ।
त्वगस्थिशेषोऽतिकृश: स्थूलपर्वा नरो मतः’ ।। (च.सू. 21:15)
- अतिकृश मनुष्य (नर-नारी-शिशु) का नितम्ब, उदर एवं ग्रीवा सूख जाता है ।
- शरीर की धमनियों का जाल दृष्टिगोचर होता है ।
- ऐसा देखने से प्रतीत होता है कि शरीर में मात्र त्वचा एवं अस्थि ही शेष है तथा इनकी सन्धियाँ मोटी हो जाती हैं ।
निदान :-
- रुक्षान्नपान का सेवन
- किसी भी शारीरिक या मानसिक कार्यों को अधिक करना
- वेग विधारण
चिकित्सा सिद्धान्त :-
- बृंहण चिकित्सा
- निदान परिवर्जन
- स्तनपायी शिशु में माता को बृंहणीय आहार दें ।
२. फक्क रोग (का. चि. – फक्कचिकित्सा अध्याय)
निरुक्ति – ‘फक्कति नीच्चैर्गच्छति इति फक्कः’
“स्वास्थ्य की क्रमशः गिरती हुई स्थिति”
- यदि किसी कारण से एक वर्ष की वय का बालक चलने में असमर्थ रहता है तो उसे फक्क रोग कहते हैं।
निदान के आधार पर वर्गीकरण-
१. क्षीरज फक्क
२. गर्भज फक्क
३. व्याधिज फक्क
सामान्य निदान :-
- गर्भवती माता
- अनाथ
- दुष्ट ग्रहणी रोग वाले
सामान्य सम्प्राप्ति –
- मन्दाग्नि होने से (कफप्रकोपज) एवं रस का उत्सर्ग होने से (स्रोतोवरोधजन्य) उन्हें मूत्र-पुरीष अधिक होता है।
(1) क्षीरज फक्क
‘धात्री श्लैष्मिकदुग्धा तु फक्कदुग्धेति संज्ञिता ।
तत्क्षीरपो बहुव्याधि: कार्श्यात् फक्कत्वमाप्नुयात्’ ।।
निदान—‘फक्क दुग्ध’ अर्थात् ‘श्लैष्मिक दुग्ध’ या माता का दूध जो श्लेष्मा दोष से दूषित हो ।
लक्षण – कार्श्यात् अर्थात् कृशता एवं अनेक व्याधियों का आक्रमण और अन्त में फक्कत्व की प्राप्ति ।
(2) गर्भज फक्क
‘गर्भिणीमातृकः क्षिप्र स्तन्यस्य विनिवर्तनात् ।
क्षीयते म्रियते वाऽपि स फक्को गर्भपीडितः ।।
निदान – गर्भिणी माता का दूध शीघ्र कम होने से या बन्द होने से ।
लक्षण – क्षीणता या मृत्यु ।
(3) व्याधिज फक्क
निदान – निज तथा आगंतुज ज्वर आदि रोगों से
लक्षण –
- अनाथ बालकों को क्लेश होकर उनका मांस बल एवं द्युति क्षीण हो जाता है ।
- उस बालक के स्फिग्, बाहु एवं जङ्घाएं शुष्क हो जाती हैं तथा उदर, सिर और मुख बड़े हो जाते हैं ।
चिकित्सा–
१. शोधन कर्म –
- सर्वप्रथम स्नेहन – फिर विरेचन
- कल्याणक घृत, षट्पल घृत या अमृत घृत का पान
- 7 दिन बाद – त्रिवृत् क्षीर से कोष्ठ शोधन कर ब्राह्मी घृत का पान करायें ।
२. बल्य चिकित्सा –
- मांस, यूष तथा संस्कारित दूध शालि अन्न के साथ नित्य सेवन करायें।
३. दोषानुसार कर्म –
- कफ की प्रधानता – दूध + गौमूत्र
- यदि वातरोगों का संसर्ग हो – बस्ति, स्नेहपान, स्वेदन एवं उद्वर्तन करें।
४. अभ्यंग – राज तैल
५. त्रिपाद चक्ररथ – तीन पहियों वाले फक्क रथ का प्रयोग
३. बालशोष
निदान – अत्यधिक सोना, शीतल जल एवं श्लैष्मिक स्तन्य
सम्प्राप्ति – उपरोक्त कारणों से बढ़ा हुआ कफ शिशु के रसवाही स्रोतसों को अवरुद्ध कर देता है ।
लक्षण- अरुचि, प्रतिश्याय, ज्वर,कास, शोष एवं मुख-नेत्र का स्निग्ध एवं श्वेत होना ।
चिकित्सा –
- पंचकोल, अशोक एवं कुटकी चूर्ण + घृत
- पिप्पली, त्रिकटु, पाठा, मूर्वा एवं शतावरी चूर्ण + मधु
- शिशुशोषनाशक घृत
- शोषनाशक तैल
- लाक्षादि तैल
४. पारिगर्भिक
पर्याय – परिभवाख्य, परिभव, दुधकट्टा, अहिण्डी
- गर्भिणी माता का दूध पीने से प्रायः शिशुओं को कास, अग्निसाद, वमन, तन्द्रा, कार्श्य, अरुचि, भ्रम एवं उदर वृद्धि लक्षण हो जाते हैं, इसे पारिगर्भिक कहते हैं ।
- गुणवत्ता या मात्रा की कमी ही इस व्याधि का कारण होता है ।
चिकित्सा –
- अग्निदीपन चिकित्सा करनी चाहिए ।
- विदारीकन्द, यव, गोधूम तथा पिप्पली चूर्ण + घृत, तथा मधु एवं शर्करा मिश्रित गर्म दूध देना चाहिए ।