छः ऋतुएँ
मासैर्द्विसङ्ख्यैर्माघाद्यैः क्रमात् षडृतवः स्मृताः ।
शिशिरोऽथ वसन्तश्च ग्रीष्मो वर्षाः शरद्धिमाः ।।1।।
- माघ-फाल्गुन आदि दो-दो महीनों से क्रमशः छः ऋतुएँ होती है।
- माघ-फाल्गुन : शिशिर ऋतु
- चैत्र-वैशाख : वसन्त ऋतु
- ज्येष्ठ-आषाढ़ : ग्रीष्म ऋतु
- श्रावण-भाद्रपद : वर्षा ऋतु
- आश्विन-कार्तिक : शरद ऋतु एवं
- मार्गशीर्ष-पौष : हेमन्त ऋतु ।
आदान काल – उतरायण
शिशिराद्यास्त्रिभिस्तैस्तु विद्यादयनमुत्तरम् ।
आदानं च तदादत्ते नृणां प्रतिदिनं बलम् ॥2॥
- शिशिर वसन्त एवं ग्रीष्म तीन ऋतुओं को उत्तरायण कहते हैं।
- इसी का दूसरा नाम आदान काल है।
- इस काल में प्रतिदिन प्राणियों का बल (सार) प्रकृति से सूर्य आहरण (अपहरण) करता रहता है।
आदान काल – अग्निगुण प्रधान
तस्मिन् ह्यत्यर्थतीक्ष्णोष्णरूक्षा मार्गस्वभावतः ।
आदित्यपवना: सौम्यान् क्षपयन्ति गुणान् भुवः ॥3॥
तिक्तः कषायः कटुको बलिनोऽत्र रसाः क्रमात् । तस्मादादानमाग्नेयम् —
- इस आदान काल के स्वभावानुसार सूर्य के उत्तर दिशा में गमन होने से सूर्य की किरणें अत्यन्त तीक्ष्ण तथा उष्ण हो जाती है।
- सूर्य की गर्मी से हवाएँ भी उष्ण एवं रूक्ष हो जाती हैं।
- इसलिए सूर्य तथा वायु पृथ्वी के सौम्य (शीतलता तथा गीलापन) गुण को क्षीण कर देते हैं । यहीं कारण है कि इन दिनों प्राणियों का शारीरिक बल क्षीण हो जाता है।
- आदानकाल में क्रमशः शिशिर ऋतु में तिक्तरस, वसन्त ऋतु में कषाय रस और ग्रीष्म ऋतु में कटुरस बलवान हो जाते हैं और मनुष्यों में दुर्बलता उत्पन्न कर देते हैं।
- इसीलिए यह आदान काल आग्नेय (अग्निगुण प्रधान) कहा गया है।
विसर्ग काल – दक्षिणायन
— ऋतवो दक्षिणायनम् ॥4॥
वर्षादयो विसर्गश्च —
यद्वलं विसृजत्ययम् । सौम्यत्वादत्र सोमो हि बलवान् हीयते रविः ॥5॥
- वर्षा, शरद एवं हेमन्त नामक तीन ऋतुएँ दक्षिणायन काल की ऋतुएँ हैं;
- इसी का दूसरा नाम विसर्ग काल है।
- क्योंकि यह काल सौम्य होने के कारण बल का विसर्जन अर्थात् बल को देता है।
- इस काल में सौम्य गुण वाला सोम (चन्द्रमा) बलवान रहता है और सूर्य का बल क्षीण हो जाता है।
मेघवृष्ट्यनिलैः शीतैः शान्ततापे महीतले ।
स्निग्धाश्चेहाम्ललवणमधुरा बलिनो रसाः ॥6॥
- इस काल में बादलों के छाये रहने के कारण वर्षा होने से शीतल हवा बहने से भूतल का सन्ताप शान्त हो जाता है।
- अतः वर्षा ऋतु में स्निग्ध गुण वाला अम्ल रस, शरद् ऋतु में लवण रस तथा हेमन्त ऋतु में मधुर रस बलवान हो जाते हैं।
- फलतः विसर्गकाल (दक्षिणायन) में प्राणियों का बल बढ जाता है, इसलिए इसे विसर्ग काल कहते हैं।
ऋतुकाल मे शरीर बल (बल का चयापचय)
शीतेऽग्र्यं वृष्टिघर्मेऽल्पं बलं मध्यं तु शेषयोः ।
- शीत ऋतुओं (हेमन्त एवं शिशिर) में प्राणियों का बल उत्तम रहता है, शेष दो शरद एवं वसन्त ऋतुओं में मध्यम एवं वर्षा तथा ग्रीष्म में अति अल्प होता है।