“दीर्घायु अथवा पूर्णायु की कामना करने वालो के लिए जो हितकर अध्याय है उसे आयुष्कामीय अध्याय कहा जाता है ।”
आयुर्वेद का प्रयोजन- **
आयुः कामयमानेन धर्मार्थसुखसाधनम्।
आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः।।
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धर्म, अर्थ, सुख नामक इन तीन पुरुषार्थों का साधन (प्राप्ति का उपाय) आयु है, अतः आयु ( सुखायु ) की कामना करने वाले पुरुष को आयुर्वेदशास्त्रों में निर्दिष्ट उपदेशों में परम (विशेष) आदर करना चाहिए।
आयुर्वेदावतरण –
ब्रह्मा स्मृत्वाऽऽयुषो वेदं प्रजापतिमजिग्रहत् ।
सोऽश्विनौ तौ सहस्राक्षं सोऽत्रिपुत्रादिकान्मुनीन् ।
तेऽग्निवेशादिकांस्ते तु पृथक् तन्त्राणि तेनिरे ।
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ब्रह्माजी ने सबसे पहले आयुर्वेदशास्त्र का स्मरण (ध्यान) करके उसे दक्षप्रजापति को ग्रहण कराया था।
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दक्षप्रजापति ने अश्विनीकुमारों को पढ़ाया था, अश्विनीकुमारों ने देवराज इन्द्र को पढ़ाया था, उन्होंने अत्रिपुत्र (पुनर्वसु आत्रेय) आदि महर्षियों को पढ़ाया था; आत्रेय आदि ने अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत, क्षारपाणि आदि को पढ़ाया था ।
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फिर अग्निवेश आदि महर्षियों ने अलग-अलग तन्त्रो (आयुर्वेदशास्त्रों) की विस्तार के साथ रचना की।।
अष्टांगहृदय का स्वरूप या अष्टांगहृदय की विशेषता –
तेभ्योऽतिविप्रकीर्णेभ्यः प्रायः सारतरोच्चयः।
क्रियतेऽष्टाङ्गहृदयं नातिसङ्क्षेपविस्तरम्।।
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महर्षि वाग्भट का कथन है कि इधर-उधर बिखरे हुए उन प्राचीन तन्त्रों में से उत्तम-से-उत्तम (सार) भाग को लेकर यह उच्चय (संग्रह) किया गया है।
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प्रस्तुत संग्रह-ग्रन्थ का नाम है-‘अष्टांगहृदय’।
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इसमें प्राचीन तन्त्रों में वर्णित विषय न अत्यन्त संक्षेप से और न ही अत्यन्त विस्तार मे कहे गये हैं।
आयुर्वेद के आठ अंग-**
कायबालग्रहोर्ध्वाङ्गशल्यदंष्ट्राजरावृषान्।
अष्टावङ्गानि तस्याहुश्चिकित्सा येषु संश्रिता।।
१. कायचिकित्सा
२.बालतन्त्र (कौमारभृत्य)
३. ग्रहचिकित्सा (भूतविद्या)
४. ऊर्ध्वांग चिकित्सा (शालाक्यतन्त्र)
५. शल्यचिकित्सा (शल्यतन्त्र)
६. दंष्ट्राविषचिकित्सा (अगदतन्त्र)
७. जराचिकित्सा (रसायनतन्त्र) तथा
८. वृषचिकित्सा (वाजीकरण-तन्त्र)
ये आठ अंग कहे गये हैं। इन्हीं अंगों में सम्पूर्ण चिकित्सा आश्रित है।
दोषों का वर्णन-
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः॥
आयुर्वेदशास्त्र में तीन ही दोष माने जाते हैं; यथा—
१. वात
२. पित्त तथा
३. कफ
विकृत-अविकृत दोष—
विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्तयन्ति च ।
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ये तीनों वात आदि दोष विकृत (विषम अर्थात् बढ़े हुए अथवा क्षीण हुए) शरीर का विनाश कर देते हैं और अविकृत (समभाव में स्थित) जीवनदान करते हैं अथवा स्वास्थ्य-सम्पादन करने में सहायक होते हैं।
दोषों के स्थान तथा प्रकोपकाल-**
व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योर्ध्वसंश्रयाः॥
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ये तीनों वात आदि दोष सदा समस्त शरीर में व्याप्त रहते हैं।
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फिर भी नाभि से निचले भाग में वायु का, नाभि तथा हृदय के मध्य भाग में पित्त का और हृदय के ऊपरी भाग में कफ का आश्रयस्थान है।
वय आदि के अनुसार काल—**
वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् ।
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यद्यपि ये दोष सदा गति (क्रिया) शील रहते हैं, तथापि वयस् के अन्तकाल (वृद्धावस्था) में, वयस् के मध्य (यौवन) काल में तथा वयस् के आदि (बाल्य) काल में और दिन-रात तथा भुक्त (भोजन कर चुकने) के अन्त, मध्य एवं आदि काल में विशेष रूप से गतिशील होते हैं।
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यहां दोषों को क्रमशः वात-पित-कफ लेना है, जैसे – वृद्धावस्था में वात, यौवनावस्था में पित तथा बाल्यावस्था में कफ अधिक रहता है।
दोषों का अग्नि पर प्रभाव–
तैर्भवेद्विषमस्तीक्ष्णो मन्दश्चाग्निः समैः समः॥
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उक्त वात आदि दोषों के प्रभाव (वृद्धि ) से अग्नि (जठराग्नि) भी दोषों के क्रम (वातदोष) से विषम, (पित्तदोष सें) तीक्ष्ण और (कफदोष से) मन्द हो जाती है तथा इन तीनों के सम मात्रा में रहने पर अग्नि भी सम प्रमाण में रहती है।
दोषों का कोष्ठ पर प्रभाव-
कोष्ठः क्रूरो मृदुर्मध्यो मध्यः स्यात्तैः समैरपि।
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जठराग्नि की भाँति कोष्ठ भी वातदोष से क्रूर, पित्तदोष से मृदु एवं कफदोष से मध्यम रहता है और तीनों दोषों के सम रहने पर भी मध्यम रहता है।
To be continued….