अर्थात् जिसके द्वारा रोगभय को जीता जाता है, उसे भेषज कहते हैं, उसका भाव या कर्म ही भैषज्य कहलाता है।
भिषज्यन्ति चिकित्सन्ति रोगान् निवर्तयन्ति वा अनेनेति भेषजम्। भेषजमेव भैषज्यम्।
अर्थात् जिसके द्वारा रोगों की चिकित्सा की जाती है या रोगों को हटाया जाता है, उन सब उपायों को भेषज कहते हैं।
भेषज ही भैषज्य है।
“उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि प्रयोजन की दृष्टि से औषध एवं भेषज में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि औषध एवं भेषज दोनों से रोगों को दूर किया जाता है।
किन्तु आचार्य काश्यप के अनुसार दोनों में यह अन्तर है कि औषध चरकोक्त युक्तिव्यपाश्रय, द्रव्यभूत एवं प्रत्यक्ष चिकित्सा है, जबकि भेषज चरकोक्त दैवव्यपाश्रय, अद्रव्यभूत (अप्रत्यक्ष) एवं नैष्ठिकी चिकित्सा हैं।”