शरद ऋतुचर्या, आहार विधि, हंसोदक सेवन निर्देश,विहार-विधि, अपथ्य निषेध, संक्षिप्त ऋतु चर्या, रस सेवन निर्देश, ऋतु सन्धि मे कर्तव्य

शरद ऋतुचर्या

वर्षांशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः ।
तप्तानां सञ्चितं वृष्टौ पित्तं शरदि कुप्यति ॥49॥
तज्जयाय घृतं तिक्तं विरेको रक्तमोक्षणम् ।

  • वर्षा एवं शीत का अनुभव करने वाले अङ्गों में सहसा ही सूर्य की किरणों से तपने पर जो पित्त वर्षा एवं शीत से संचित था, वह अब कुपित हो जाता है।
  • इस ऋतु में तिक्त द्रव्यों से सिद्ध घृत, विरेचन तथा रक्तमोक्षण प्रशस्त है।

आहार विधि

तिक्तं स्वादु कषायं च क्षुधितोऽन्नं भजेल्लघु ॥50॥ शालिमुद्गसिताधात्रीपटोलमधुजाङ्गलम् ।

  • तिक्त, मधुर एवं कषाय रस प्रधान द्रव्यों का सेवन भूख लगने पर थोड़ी मात्रा में करना चाहिए ।
  • शालि चाँवल, मूँग, मिश्री, आँवला (Emblica officinalis) परवल, मधु तथा जांगल प्राणियों के मांस का सेवन करना चाहिए।

हंसोदक

तप्तं  तप्तांशुकिरणैः शीतं शीतांशुरश्मिभिः ॥51॥
समन्तादप्यहोरात्रमगस्त्योदयनिर्विषम् ।
शचि हंसोदकं नाम निर्मलं मलजिज्जलम् ॥52॥
नाभिष्यन्दि न वा रूक्षं पानादिष्वमृतोपमम् ।

  • जल जो दिन में सूर्य की किरणों से सन्तप्त हो जाता है, रात्रि में चन्द्र किरणों से शीतल हो जाता है, जो अगस्त नक्षत्र से निर्विष हो, ऐसे शुद्ध, मल रहित (निर्मल) एवं दोष नाशक जल को ‘हंसोदक’ कहते हैं।
  • यह जल अनभिष्यन्दि तथा रूक्ष नहीं होता है।
  • यह जल पीने में अमृत के समान होता है।
  • ’हंसोदक’ को ही भावमिश्र ने ’अंशूदक’ कहा है।

विहार विधि

चन्दनोशीरकर्पूरमुक्तास्रग्वसनोज्ज्वलः ॥53॥
सौधेषु सौधधवलां  चन्द्रिकां चन्द्रिकां  रजनीमुखे ।

  • चन्दन (Santalum album), उशीर, कर्पूर (Cinnamomum camphora) का लेप लगाकर, मोतियों की माला धारण कर, शुद्ध वस्त्रों को पहनकर (सौधेषु) एवं छत पर बैठकर (सौधधवला) चूना के सदृश उज्जवल चाँदनी का सेवन करें ।

अपथ्य निषेध

तुषारक्षारसौहित्यदधितैलवसातपान् ॥54॥
तीक्ष्णमद्यदिवास्वप्नपुरोवातान्  परित्यजेत् ।

  • ओस, क्षार, तृप्तिपर्यन्त भोजन (सौहित्य), दधि, तैल, वसा, आतप, तीक्ष्ण मद्य, दिन में सोना तथा पूर्व दिशा की वायु का सेवन त्याग देना चाहिए।

संक्षिप्त ऋतुचर्या

शीते वर्षासु चाद्यांस्त्रीन् वसन्तेऽन्त्यान् रसान्भजेत् ॥55॥
स्वादुं  निदाघे, शरदि स्वादुतिक्तकषायकान्।
शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं घर्मघनान्तयोः ॥56॥
अन्नपान  समासेन विपरीतमतोऽन्यदा।

  • शीतकाल (हेमन्त एवं शिशिर) एवं वर्षा ऋतु में आरम्भ के तीन रस मधुर-अम्ल-लवण तथा वसन्त  ऋतु में अन्तिम तीन (कटु-तिक्त-कषाय) रस का सेवन करना चाहिए।
  • ग्रीष्म में मधुर रस तथा शरद में मधुर, तिक्त, कषाय रस का सेवन करना चाहिए।
  • शरद एवं वसन्त ऋतु में रूक्ष द्रव्यों का सेवन करना चाहिए।
  • ग्रीष्म एवं घनान्त (शरद ) ऋतु में शीत द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए।
  • (अन्यदा) हेमन्त, शिशिर एवं वर्षा ऋतु  में उक्त (रूक्ष, शीत) के विपरीत स्निग्ध एवं उष्ण अन्नपान का सेवन करना चाहिए।

रस सेवन निर्देश

नित्यं  सर्वरसाभ्यासः   स्वस्याधिक्यमृतावृतौ।।57।।

  • नित्य सभी ऋतुओं में सभी रसों का अभ्यास (सेवन) करना चाहिए, किन्तु जिस ऋतु में जो रस कहे गये हैं, उन रसों का उन-उन ऋतुओं में विशेष (अधिक) सेवन करना चाहिए ।

ऋतु सन्धि

ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहावृतुसन्धिरिति स्मृतः।
तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्रमात् ॥
असात्म्यजा हि रोगाः स्युः सहसा त्यागशीलनात् ।

  • वर्तमान ऋतु का अन्तिम सप्ताह तथा आगामी ऋतु का प्रथम सप्ताह (कुल चौदह दिन) ऋतुसन्धि कहलाता है।
  • इस समय वर्तमान ऋतुचर्या का क्रमशः धीरे-धीरे परित्याग तथा आगामी ऋतुचर्या का क्रमशः धीरे-धीरे सेवन प्रारम्भ करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ऋतुचर्या का सहसा त्याग तथा आगामी ऋतुचर्या का सहसा सेवन करने से असात्म्यजन्य रोग होते हैं।

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