परिचय
परिचय
Curcuma longa
गण – कुष्ठघ्न, लेखनीय, विषघ्न, तिक्तस्कन्ध (च.), हरिद्रादि, मुस्तादि, श्लेष्म संशमन (सु.) ।
कुल – आर्द्रक
कुल (Family) – जिंजिबरेसी- Zingiberacae
लैटिन नाम – Curcuma longa
पर्याय
पर्याय
- हरिद्रा – जो शरीर के वर्ण को ठीक करे
- काञ्चनी – सुवर्ण के समान पीतवर्ण होने के कारण
- निशा – चाँदनी रात की तरह सुन्दर
- वरवर्णिनी – सुन्दर वर्ण वाली
- गौरी – पीतवर्ण होने से
- कृमिघ्न – कृमिनाशक होने के कारण
- योषित् प्रिया – उवटन इत्यादि तथा स्त्री रोगों में उपयोगी होने के कारण
- हट्टविलासिनी – बाजारो की शोभा बढाने वाली
स्वरूप
स्वरूप
- इसका बहुवर्षायु क्षुप २-३ फीट ऊँचा ह्रस्वकाण्ड होता है।
- आयताकार, १.५-२ फीट लम्बे, लगभग ६ इस इञ्च चोङे, उतने ही लम्बे (१.५-२ फीट) पत्र वृन्त से लगे रहते है।
- पुष्पदंड– ६ इञ्च लम्बा पत्र कोष से आवृत होता है। जिस में पीतवर्ण लगभग १.५ इञ्च लम्बे पुष्प निकोलते है।
- पत्र – पत्र की मुख्य पार्श्व सिराये २०-३० उठी होती हैं। पत्तियां दोनों पृष्ठ पर चिकनी होती हैं किन्तु उन पर सूक्ष्म सफेद बिन्दु होते है। पत्रधार संकीर्ण होता है।
रासायनिक संघटन
रासायनिक संघटन
- इसमें उङनशील तैल ५-८ प्रतिशत, कुर्कुमीन (Curcumin) नामक पीतरञ्जक द्रव्य होते हैं।
- इनके अतिरिक्त विटामिन ए, स्नेहद्रव्य, खनिज द्रव्य तथा कार्बोहाइड्रेट होता है।
रस पंचक
रस पंचक
गुण |
रूक्ष, लघु |
रस |
तिक्त, कटु |
विपाक |
कटु |
वीर्य |
उष्ण |
प्रभाव |
– |
कर्म
कर्म
दोषकर्म:-
- उष्णवीर्य होने से यह कफवातशामक, पित्तरेचक और तिक्त होने से पित्तशामक भी है।
संस्थानिक क्रम:-
- बाह्य – इसका लेप, शोथहर, वेदनास्थापन, वर्ण्य, कुष्ठघ्न, व्रणशोधन, व्रणरोपण, लेखन है। इसका धूम हिक्कानिग्रहण, श्वासहर और विषघ्न है।
- आभ्यन्तर नाड़ीसंस्थान – यह उष्ण होने से वेदनास्थापन है।
पाचन संस्थान:-
- यह रूचिवर्धक, अनुलोमन, पित्तरेचक एवं कृमिघ्न है।
रक्तवह संस्थान:-
- तिक्त होने से यह रक्तप्रसादन, रक्तवर्धक एवं रक्तस्तम्भन है।
श्वसन संस्थान:-
- तिक्त होने से यह कफघ्न है।
मूत्रवहसंस्थान:-
- यह मूत्रसंग्रहणीय एवं मूत्रविरजनीय है।
सात्मीकरण:-
- यह कटुपौष्टिक एवं विषघ्न है।
त्वचा:-
- यह कुष्ठघ्न है।
तापक्रम:-
- पित्ताशामक एवं आमपाचन होने से ज्वरघ्न हैं।
प्रजनन संस्थान:-
- यह उष्ण होने से गर्भाशयशोधन तथा तिक्त होने से स्तन्य-शोधन एवं शुक्र शोधन है।
प्रयोग
दोषप्रयोग:-
- यह वात, पित्त, कफ तीनों दोषों से उत्पन्न विकारों में प्रयुक्त होता है।
- विशेषतः कफपित्ताशामक है।
संस्थानिक प्रयोग:-
बाह्य –
- शोथ- वेदना युक्त विकारों में विशेषतः आघात लगने पर इसका लेप करते हैं।
- कुष्ठ, कण्डू आदि त्वग्दोषो में इसे लगाते हैं।
- वर्ण को सुधारने के लिए उबटन में भी प्रयुक्त होता है । व्रणो के पाचनार्थ इसकी पुल्टिस लगाते हैं तथा शोधन एवं रोपण के लिए इसका चूर्ण या मलहम लगाते हैं।
- नेत्राभिष्यन्द में इसका आश्चोतन (१ भाग हल्दी १० भाग जल में पका कर छान लेते है) तथा विडालक देते हैं।
- यकृत्प्लीहा की वृद्धि होने पर इसका लेप यकृत्प्लीहा के प्रदेश में करते हैं। अर्श में भी इसका लेप लगाते है।
- हल्दी के टुकड़े या चुर्ण को अंगारों पर रखने से जो धूम निकलता है वह मूर्च्छा, श्वास एवं हिक्का रोगों में प्रयुक्त होता है। इस धूम से वृश्चिक दंश की वेदना भी शान्त होती हैं।
आभ्यन्तर नाडीसंस्थान –
- अभिघातज वेदना तथा नाङीशूल में यह प्रयुक्त होता है।
पाचन संस्थान:-
- अरूचि ,विबन्ध, कामला, जलोदर एवं कृमि में प्रयोग किया जाता है।
रक्तवह संस्थान:-
- यह रक्त विकार, शीतपित्त, पाण्डु तथा रक्त स्राव में प्रयुक्त होता है। शीतपित्त (अलर्जी) की यह उत्तम औषधि है।
श्वसनसंस्थान:-
- यह कास एवं श्वास कष्ट में उपयोगी है।
मूत्रवहसंस्थान:-
- प्रमेह रोग में इसका स्वरस या चूर्ण देते है।
प्रजनन संस्थान :-
- प्रसव के बाद एव स्तन्य विकारों में हल्दी का सेवन कराते हैं।
प्रयोज्य अंग – कन्द
मात्रा –स्वरस १०-२० मि . लि. , चूर्ण १-३ ग्राम।
विशिष्ट योग – हरिद्रा खण्ड।