अष्टांग हृदय

गमन निर्देश, निषिद्ध कार्य, छींक आदि करने की विधि, आंगिक चेष्टाओं का निषेध, शारीरिक चेष्टाओं की मात्रा, मद्यविक्रय आदि का निषेध, अन्य निषिद्ध कर्म, अन्य सदुपदेश, सदाचार सूत्र, विकार पद्धति, सदवृत का उपसंहार

गमनादि का निर्देश चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छायाभस्मतुषाशुचीन् ।नाक्रामेच्छर्करालोष्टबलिस्नानभुवो न च।।33।। चैत्य (किसी देवता से अधिष्ठित लोक-प्रसिद्ध वृक्ष अथवा मन्दिर), पूज्य (गुरुजन), ध्वजा (पताका, झण्डा) तथा अशस्त (अमंगल वस्तु) की छाया को लांघकर नहीं जाना चाहिए। भस्म (राख की ढेर), तुष (रेत), लोष्ट (मिट्टी का ढेला), बलिभूमि (जहाँ किसी देवता के निमित्त बलि या उपहार दिया हो) तथा स्नानभूमि (जहाँ …

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इन्द्रिय व्यवहार विधि,व्यवहार विधि, त्रिवर्ग विरोध का निषेध, सभी धर्मों का आचरण, शरीर शुद्धि के प्रकार, रत्न आदि का धारण, छाया आदि धारण, दण्ड आदि धारण

इन्द्रिय व्यवहार विधि      न पीडवेदिन्द्रियाणि न चैतान्यति लालयेत् ॥29॥ रसना एवं चक्षु आदि इन्द्रियों को न तो रस-रूप आदि विषयों को ग्रहण करने से रोके और न ही इनको अत्यधिक विलास युक्त बनावे । त्रिवर्ग विरोध का निषेध त्रिवर्गशून्यं नारम्भं भजेत्तं चाविरोधयन् । त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) से रहित कोई कार्य नहीं करना चाहिए अर्थात् ऐसा …

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भोजन आदि कर्तव्य, सुख का साधन धर्म, मित्र–अमित्र सेवन विचार, पापकर्मों का त्याग

भोजन आदि कर्तव्य जीर्णे  हितं मितं चाद्यान्न वेगानीरयेद्वलात् ।न वेगितोऽन्यकार्यः स्यान्नाजित्वा साध्यमामयम् ॥ स्नान करने के पश्चात् पहले किये हुए आहार के सम्यक परिपाक हो जाने पर (हितं) पथ्य एवं (मितं) मात्रानुसार आहार लेना चाहिए। मल-मूत्र के वेग को बलपूर्वक निकालने के लिये प्रेरित नहीं करना चाहिए। मल-मूत्र का वेग मालूम पड़ने पर उन्हें रोककर …

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व्यायाम, व्यायाम से हानि, व्यायाम का निषेध एवं परिणाम

व्यायाम लाघवं कर्मसामर्थ्य  दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः। विभक्तघनगात्रत्वं  व्यायामादुपजायते ॥10॥ व्यायाम करने से शरीर में लघुता (हलकापन), कार्य करने की शक्ति तथा पाचकाग्नि  प्रदीप्त होती है। मेदोधातु का क्षय होता है, शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग की मांसपेशियाँ  पृथक-पृथक स्पष्ट हो जाती है तथा शरीर घन (ठोस) हो जाता है। व्यायाम का निषेध वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी  च तं  …

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उद्वर्तन, उद्वर्तन के गुण, स्नान के गुण, उष्ण-शीत जल का प्रयोग, स्नान का निषेध

उद्वर्तन/उबटन के गुण उद्वर्तन कफहरे  मेदसः  प्रविलायनम् ॥ स्थिरीकरणामङ्गानां त्वक्प्रसादकरं परम् ॥15॥ व्यायाम के पश्चात् कफहर (कषाय-तिक्त) द्रव्यों से उद्वर्तन (उबटन) करना चाहिए। उद्वर्तन मेदोधातु का विलयन, अंग-प्रत्यंग को स्थिर (दृढ़) तथा त्वचा को कर कान्तियुक्त करता है। जौ या चने के आटे में तेल और हल्दी मिलाकर शरीर पर मसलने को उद्वर्तन, उत्सादन या …

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ताम्बूल सेवन विधि, ताम्बूल सेवन निषेध, अभ्यंग का प्रमुख स्थान, अभ्यंग का निषेध, अभ्यंग सेवन विधि

ताम्बूल सेवन विधि भोजन के प्रति इच्छा अधिक हो, मुख स्वच्छ एवं सुगन्धित रखने वाले को पान खाना चाहिए। इसे भोजन की भाँति मुख में रखकर तत्काल निगलना नहीं चाहिए। पान के मसाले — जावित्री, जायफल, लौंग, कपूर, पिपरमेण्ट, कंकोल (शीतल चीनी), कटुक (लताकस्तूरी के बीज) तथा इसमें सुपारी के भिगाये हुए टुकड़े भी रखें। …

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दोषों का वर्णन, विकृत-अविकृत दोष, दोषों के स्थान एवं प्रकोपकाल

दोषों का वर्णन वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः ।।६।। तीन दोष माने जाते हैं – वात पित्त कफ विकृत – अविकृत दोष विकृताsविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्तयन्ति च । ये तीनों वात आदि दोष विकृत (बढ़े हुए अथवा क्षीण हुए) शरीर का विनाश कर देते हैं और अविकृत (समभाव में स्थित) जीवनदान करते हैं …

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अञ्जन का प्रयोग, रसाञ्जन प्रयोग विधि,नस्य आदि सेवन निर्देश

अञ्जन प्रयोग सौवीरमञ्जनं   नित्यं  हितमक्ष्णोस्ततो भजेत्। मुखशुद्धि करने के बाद सौवीर अञ्जन का प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिए। यह आँखों के लिए हितकर होता है। अञ्जन से नेत्र सुन्दर तथा सूक्ष्म पदार्थों को देखने  योग्य हो जाते हैं। स्वस्थ आँखों में प्रतिदिन लगाने वाले अञ्जन को प्रत्यञ्जन कहते हैं। रसाञ्जन – प्रयोग विधि चक्षुस्तेजोमयं  तस्य  विशेषात्‌ …

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दिनचर्या,ब्रह्मा मुहूर्त, दतवन का विधान, दतवन कि विधि, दतवन का निषेध

दिनचर्या  अथातो  दिनचर्याध्यायं  व्याख्यास्यामः ।    दिनचर्या  –  ‘प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या’  प्रतिदिन करने योग्य चर्या  दिनचर्या है । ब्राह्ममुहूर्त  में जागरण ब्राह्मेमुहूर्त   उत्तिष्ठेत्   स्वस्थो  रक्षार्थमायुषः। स्वस्थ (निरोग) मनुष्य आयु (जीवन) की रक्षा के लिए ब्राह्ममुहूर्त में उठे। चार घड़ी रात्रि शेष रहने (प्रात:काल 4-6 बजे) का नाम ‘ब्राह्ममुहूर्त’ होता है । दन्तधावन शरीरचिन्तां निर्वर्त्य कृतशौचविधिस्ततः ॥१॥ …

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आयुर्वेद का प्रयोजन, आयुर्वेदावतरण, अष्टांगहृदय का स्वरुप, आयुर्वेद के आठ अंग

मंगलाचरण :- रागादिरोगान् सततानुषक्तानशेषकायप्रसृतानशेषान् ।औत्सुक्यमोहरतिदाञ्जघान योऽपूर्ववैद्याय नमोऽस्तु तस्मै ।। राग-द्वेष आदि रोगों को, जो नित्य मानव के साथ सम्बद्ध रहते है एवं सम्पूर्ण शरीर में फैले रहते हो, अविचार युक्त कार्य प्रवृत्ति, असन्तोष को उत्पन्न करते हैं, उन सबको जिसने नष्ट किया है, उस आचार्य रूप अर्थात् अद्भुत रूप वैद्य को नमस्कार है। अथात आयुष्कामीयमध्यायं …

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