भोजन आदि कर्तव्य, सुख का साधन धर्म, मित्र–अमित्र सेवन विचार, पापकर्मों का त्याग

भोजन आदि कर्तव्य

जीर्णे  हितं मितं चाद्यान्न वेगानीरयेद्वलात् ।
न वेगितोऽन्यकार्यः स्यान्नाजित्वा साध्यमामयम् ॥

  • स्नान करने के पश्चात् पहले किये हुए आहार के सम्यक परिपाक हो जाने पर (हितं) पथ्य एवं (मितं) मात्रानुसार आहार लेना चाहिए।
  • मल-मूत्र के वेग को बलपूर्वक निकालने के लिये प्रेरित नहीं करना चाहिए।
  • मल-मूत्र का वेग मालूम पड़ने पर उन्हें रोककर अन्य कार्य नहीं करना चाहिए ।
  • यदि किसी प्रकार का साध्य रोग हो तो उसकी चिकित्सा किये  बिना अन्य कार्य न करें।

धर्म का प्राधान्य

सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं च न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत्॥
  • सभी प्राणी चाहते हैं कि हमें सुख मिले, इसलिए उनकी प्रवृत्तियाँ (कार्य करने की लगन) सुख के लिए होती हैं और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं होती है।
  • अतः सबको धर्म कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए।
  • शास्त्रों में सदाचार को प्रथम श्रेणी का धर्म कहा गया है, अत: मानव मात्र को सदाचार का पालन करना चाहिए ।

मित्र-अमित्र की परिभाषा

भक्त्या कल्याणमित्राणि  सेवेतेतरदूरगः।

  • अच्छे मित्रों (शुभचिन्तक, अच्छी सलाह देने वाले) से भक्तिपूर्वक (हृदय से) मित्रता करे। 
  • इससे विपरीत चरित्र वाले (धोखेबाज एवं गलत आदत) से दूर रहे।

पापकर्मों का त्याग

हिंसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्यं परुषानृते ॥21॥
सम्भिन्नालापं व्यापादमभिध्यां दृग्विपर्ययम् ।
पापं कर्मेति दशधा कायवाङ्मानसैस्त्यजेत् ।।

  • दस प्रकार के निम्नलिखित पापकर्म शरीर, वाणी एवं मन से त्याग देना चाहिए

(क) शरीर से –

1. हिंसा (प्राणीवध)
2. स्तेय (चोरी)
3. अन्यथाकाम (अगम्यागमन अर्थात् पर स्त्री-गमन)

(ख) वाणी से—

4. पैशुन्य (चुगली या दूसरों की निन्दा करना)
5. परुष (कठोर वचन)
6. अनृत (असत्य वचन)
7. सम्भिन्न आलाप (असम्बद्ध प्रलाप – कभी कुछ और कभी कुछ कहना)

(ग) मन से–

8. व्यापदं (पर अनिष्ट – किसी को मार डालना या मरवा डालने की योजना)
9. अभिध्या (अन्याय-दूसरे का धन लेने की चाह)
10. दृग्विपर्यय (मिथ्या दृष्टि – शास्त्र के निर्देशों के विपरीत सोचना)

  • इस प्रकार दशविध शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक पापों को त्याग देना चाहिए ।

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