1. दीर्घञ्जीवितीयमधायायं व्याख्यास्यामः
1. दीर्घञ्जीवितीयमधायायं व्याख्यास्यामः
प्रभाव-भेद से द्रव्यों के भेद –
किञ्चिद्दोषप्रशमनं किञ्चिद्धातुप्रदूषणम् ।
स्वस्थवृत्तौ मतं किञ्चित्रिविधं द्रव्यमुच्यते ॥
- दोषों को शान्त करने वाले द्रव्य
- धातुओं को दूषित करने वाले द्रव्य
- स्वस्थवृत्त में हितकारक द्रव्य
उत्पत्ति-भेद से द्रव्यों के प्रकार —
तत् पुनस्त्रिविधं प्रोक्तं जङ्गमौद्भिदपार्थिवम् ।
- जाङ्गम द्रव्य
- औद्भिद द्रव्य
- पार्थिव द्रव्य
1. जाङ्गम द्रव्य –
- जंगम प्राणियों से प्राप्य वस्तुएँ , जो ( चिकित्सार्थ ) प्रयोग में लायी जाती हैं, उनमें विविध जाति के मधु, गाय, भैंस, बकरी आदि के दूध, दही, घृत आदि ।
2. पार्थिव द्रव्य –
- जो पृथिवी के भीतर खानों से निकलते हैं , उन्हें पार्थिव कहते हैं ।
- जैसे — सुवर्ण, मल (मण्डूर), पाच लोह ( धातु ) – चाँदी, ताम्बा, वग, नाग और । लोहा — बालू , चूना , मैनसिल , हरताल , मणियाँ ( सभी रत्न – उपरत्न ) , नमक , गेरु और अञ्जन ( सुरमा ) ये सभी पार्थिव औषध ( द्रव्य ) हैं ।
3. औद्भिद द्रव्य –
- औद्भिद द्रव्य चार प्रकार के होते हैं —
१ . वनस्पति :-
- जिनमें केवल फल आते हैं ( फूल नहीं दिखायी देते ) , वे ‘ वनस्पति ‘ कहलाते हैं ।
२ . वीरुध :-
- जो लता के रूप में ( शाखा – प्रशाखा फूटकर ) फेले , व वीरुध कहे जाते हैं ।
३ . वानस्पत्य :-
- जिनमें फूल आने के बाद फल आते हैं , उन्हें ‘ वानस्पत्य ‘ कहते हैं ।
४ . औषधि :-
- जो अपने फल के पकने पर ( सूख कर ) नष्ट हो जाये , वे औषधियाँ है ।
द्रव्यों का वर्गीकरण :-
मुलिन्यः षोडशैकोना फलिन्यो विंशतिः स्मृताः ।।
महास्नेहाश्च चत्वारः पञ्चैव लवणानि च ।
अष्टौ मूत्राणि संख्यातान्यष्टावेव पयांसि च ॥
शोधनाश्च षड् वृक्षाः पुनर्वसुनिदर्शिताः ।
य एतान् वेत्ति संयोक्तुं विकारेषु स वेदवित् ॥
- मूलिनी ( जिनकी जड़ में उत्तम गुण होता है ) सोलह हैं ।
- फलिनी ( उत्तम गुणयुक्त फलवाली ) उन्नीस हैं ।
- महास्नेह ( उत्तम कोटि के स्नेह ) चार हैं ।
- लवण पाँच हैं ।
- मूत्र और दूध आठ – आठ हैं ।
- महर्षि पुनर्वसु ने संशोधन के लिए छः वृक्षों को बतलाया है ।
जो वैद्य इन औषधियों का रोगों में प्रयोग करना जानता है वही आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञाता ( आयुर्वेदवित् ) कहा जाता है ।
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Charak Samhita || अपामार्गतण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः || Chapter 2 || Part 1
Dravyas