Charak Samhita || अपामार्गतण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः || Chapter 2 || Part 1

    अपामार्गतण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः

 

शिरोविरेचन द्रव्य और उनका प्रयोग –

  • अपामार्ग, पिप्पली, मरिच, विडंग, शिग्रु, सर्षप, तुम्बरु, अजाजी, अजगन्धा, पीलु, एला, हरेणुका, पृथ्वीका (बड़ी इलायची), सुरसा, श्वेता, कुठेरक
  • फणिज्झक (तुलसी भेद), शिरीषबीज, लहसुन, हरिद्रा, दारुहल्दी, सैन्धव नमक, काला नमक, ज्योतिष्मता एव नागर (शुण्ठी) इन सभी द्रव्यों का नस्य शिरोविरेचन के लिए प्रयोग करना चाहिए ।
  • शिर के भारीपन , शिरःशूल , पीनस रोग (बार – बार जुकाम होना), अधकपाली, नासागत या शिरोगत क्रिमिरोग, अपस्मार, घ्राण की गन्धग्रहण शक्ति के नाश होने और मूर्च्छा में उक्त औषधियों का नस्य शिरोविरेचनार्थ देना चाहिए ।

वमनार्थ द्रव्य –

  • जब किसी रोग ने आमाशय में स्थान बना लिया हो और कफ तथा पित्त वमनोन्मुख हों, तब निम्नलिखित औषधियों का वमन के लिए प्रयोग करना चाहिए ।
  • मदनफल, मुलहठी, नीम, जीमूत (देवदाली), कृतभेदन (कड़वी तोरई), पिप्पली, कुटज (इन्द्रयव), इक्ष्वाकु, एला तथा धामार्गव ।

विरेचनार्थ द्रव्य –

  • त्रिवृत, त्रिफला, दन्ती, नीलिनी, सप्तला, वचा , कम्पिल्लक, गवाक्षी (इन्द्रायण),  क्षीरिणी,
  • उदयकीर्यका (करञ्ज), पीलु, आरग्वध, द्राक्षा, द्रवन्ती एवं निचुल के मूल का और शेष द्रव्यों के फल का प्रयोग करना चाहिए ।

आस्थापन बस्तिद्रव्य –

  • पाटला, अग्निमन्थ, बिल्व, श्योनाक, काश्मर्य (गम्भारी) शालपर्णी (सरिवन), पृश्निपर्णी (पिठवन), निदिग्धिका (भटकटैया), बला, श्वदंष्ट्रा (गोखरू), बृहती (बड़ी कटेरी), एरण्ड, पुनर्नवा, यव, कुलत्थ, कोल (बेर), गुडूची, मदन, पलाश , कत्तृण, चारों प्रकार के स्नेह (घी – तेल – वसा – मज्जा) और पाँचों नमक (कालानमक, सेंधानमक, विडलवण, औद्भिद और सामुद्र) ।

अनुवासन – बस्तिद्रव्य –

  • जिन पाटला आदि औषधद्रव्यों का आस्थापन बस्ति के लिए उपदेश किया गया है, इन्हीं औषधों में वातहर औषधों को लेकर वातनाशक अनुवासन बस्ति की कल्पना (निर्माण) करनी चाहिए ।

पूर्वकर्मपूर्वक पञ्चकर्म करने का उपदेश —

  • जिन रोगियों में दोष बहिर्गमनोन्मुख हों , उन रोगियों का स्नेहन तथा स्वेदन कराकर मात्रा और काल का विचार करते हुए –
  • नस्य – वमन – विरेचन – आस्थापन – अनुवासन – इन पाँच कर्मों का प्रयोग (आवश्यकतानुसार) करना चाहिए ।

युक्ति का महत्त्व –

  • औषध की सम्यक् योजना मात्रा और काल के ऊपर निर्भर है और सम्यक् योजना से ही कार्य की सिद्धि (सफलता) होती है।
  • इसलिए द्रव्यों का ज्ञान रखने वालों की अपेक्षा औषधयोजना – निपुण चिकित्सक को सदैव उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ।

                             



Rasa Shastra – Pribhasha evum dravya varga prakaran – 3

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