गुग्गुलु ।। Commiphora Mukul

परिचय 
See the source imageगण – एलादि
कुल – गुग्गुलु  
कुल (Family) – (बर्सरेसी-Burseraceae)
लैटिन नाम – कौमिफोरा मुकुल (Commiphora Mukul)

पर्याय

गुग्गुलु :- जो व्याधि से रक्षा करे
देवधूप :- देवताओं के धूप में प्रयुक्त होने वाला
कौशिक  :- वृक्ष के कोश में होने वाला
पुर :- औषधों में श्रेष्ठ
महिषाक्ष :- भैंस कीआंख के समान कृष्ण वर्ण

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स्वरूप

  • इसका छोटा वृक्ष या गुल्म ४-६ फीट ऊंचा होता है, इसकी शाखायें कांटेदार होती है।
  • पत्र – नीम के समान संयुक्त, एकान्तर तथा पत्रकोणोदभूत होते हैं।
  • पुष्प – रक्तवर्ण और पंचदल होते हैं।
  • फलमांसल, लंब-गोल और रक्तवर्ण होते हैं।
  • इसका निर्यास-गाढा, सुगंधित तथा अनेक वर्ण का होता है।

जातियां

 

1. महिषाक्ष कृष्णवर्ण
2. महानील  नीलवर्ण
3. कुमुद  कपिशवर्ण
4. पद्म  रक्तवर्ण
5. कनक पीतवर्ण

प्रशस्त गुग्गुलु का लक्षण
  • स्निग्ध, कोमल, पिच्छिल, मधुरगन्धि, तिक्त, पीताभ, पानी में शीघ्र घुलने वाला तथा मिट्टी, बालू आदि से रहित गुग्गुलु प्रशस्त माना जाता है।
संग्रहकाल
  • सूर्य की किरणों से पिघल कर ग्रीष्म ऋतु में इसके वृक्षों से निर्यास प्रचुर मात्रा से निकलता है।
  • शिशिर और हेमन्त ऋतुओं में जब वह जम जाय तब संग्रह करना चाहिए।
रासायनिक संघटन
  • इसमे आर्द्रता, उड़नशील तैल, राल, गोंद, विजातीय द्रव्य ३.२ प्रतिशत पाये जाते हैं।
रस पंचक
गुण
लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, विशद, सूक्ष्म, सर, सुगन्धि (पुराण गुग्गुलु) स्निग्ध-पिच्छिल (नवीन गुग्गुलु)
रस
तिक्त, कटु
विपाक
कटु
वीर्य
उष्ण
प्रभाव
त्रिदोषहर

कर्म

दोषकर्म:-

  • गुग्गुलु उष्ण होने से वात का शमन है।
  • रूक्ष -विशद होने के कारण यह मेदोहर भी है।
  • अत: मेद से आवृत वात में विशेष लाभ कर होता है।
  • तीक्ष्णताऔर उष्णता के कारण यह कफ का भी शामक है।


संस्थानिक क्रम:-

  • बाह्य – यह शोथहर, वेदनास्थापन, व्रणशोथन व्रणरोपण एवं जन्तुगघ्न है।
  • आभ्यन्तर नाड़ीसंस्थान – यह वातशामक होने के कारण वेदनास्थापन एवं नाडियो के लिए बलकर है।


पाचन संस्थान:-

  • यह कटुतिक्त और सूक्ष्म होने से दीपन स्निग्ध-सर होने से अनुलोमन तथा पितसारक, तिक्त और उष्ण होने से यकृदुत्तेजक अर्शोघ्न और कृमिघ्न होता है।


रक्तवह संस्थान:-

  • यह हृद्य, रक्तकणवर्धक, श्वेतकणवर्धक तथा रक्तप्रसादन है।
  • यह शोथहर तथा गंडमालानाशक भी है।


श्वसन संस्थान:-

  • उष्ण तीक्ष्ण होने से यह कफघ्न तथा सुगन्धि और कृमिघ्न होने के कारण कफदुर्गंधहर है।


मूत्रवहसंस्थान:-

  • तीक्ष्ण होने से यह अश्मरीभेदन और मूत्रल है।


सात्मीकरण:-

  • इससे सभी संस्थानों को उत्तेजना एवं शक्ति मिलती है अतः यह रसायन और बल्य है।


प्रयोग


दोषप्रयोग:-

  • इसका प्रयोग कफवातिक विकारों में होता है।


संस्थानिक प्रयोग:-

  • बाह्य – सन्धिवात, आमवात, गण्डमाला, अपची, चर्मरोग, प्लेग, अंश आदि पर इसका लेप करते है।
  • आभ्यन्तर नाडीसंस्थान – गुग्गुलु , नाडीशूल, सन्धिवात, आमवात, गूध्रसी, अर्दित, पक्षाघात, आदि समस्त वातव्याधि के लिए सर्वप्रसिद्ध महौषध है।
  • वातरक्त में भी इसका प्रयोग करते हैं।


पाचन संस्थान:-

  • अग्निमांद्य विबन्ध, यकृद्रोग, अंश कृमि में इसका प्रयोग लाभकारी है।


रक्तवह संस्थान:-

  • हृदय रोग विशेषत: हृदयावरोध (Coronary thrombosis) तथा पांडु आदि में इसका प्रयोग करते हैं।


श्वसनसंस्थान:-

  • कफध्वन होने से, जीर्ण कास, श्वासकास एवं. क्षय की अवस्थाओं मैं इस का प्रयोग करते हैं।


मूत्रवहसंस्थान:-

  • अश्मरी, मूत्र कृच्छ, पूयमेह आदि मूत्रगत​. विकारों में इस का प्रयोग होता है।


प्रजनन संस्थान :-

  • शुक्रदौर्बल्य, क्लैब्य, कष्टार्त्तव तथा अन्य योनि व्याप्द् में इस कारण प्रयोग करते है।


प्रायोगिक अंग – निर्यास।



मात्रा – २-४ ग्राम



विशिष्ट योग – योगराज गुग्गुलु, कैशोरगुग्गुलु,. चन्द्रप्रभा वटी।



शोधन – गोदुग्ध मे स्वेदन करने से गुग्गुलु शुद्ध हो जाता है ।


 

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