- इस दर्शन का मुख्य उपपाद्य विषय वस्तुतत्त्व को जानने एवं समझने की प्रक्रियाओं का विस्तृत विवेचन तथा उपपादन है। वह वस्तुतत्त्व चाहे अधिभूत (मन, बुद्धि) हो, अथवा अध्यात्म ।
- जानने-समझने की प्रक्रिया है –प्रमाण ।
- न्याय में विस्तार के साथ ‘प्रमाण’ का सर्वांगपूर्ण उपपादन हुआ है ।
- न्यायदर्शन शास्त्र की रचना महामुनि गौतम ने सम्पूर्ण विश्व को दुःख में निमग्न देखकर दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति हेतु की।
- इस दर्शन का दूसरा नाम आन्वीक्षिकी, तर्कविद्या एवं वादविद्या भी है।
- न्याय का अर्थ है – भाँतिभाँति के प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्त्व की परीक्षा –
‘प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः ।’
‘प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् ।
आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता’ ॥
- आन्वीक्षिकी विद्या सर्वदा सम्पूर्ण विद्याओं की प्रदीपस्वरूपा, सभी कों की उपायरूपा तथा समस्त धर्मों की आश्रयभूता मानी गयी है।
- भगवान् अक्षपाद गौतम ने इस अध्यात्मविद्या को प्रकाशित किया था।
- स्कन्दपुराण के अनुसार अहल्यापति गौतममुनि का ही दूसरा नाम अक्षपाद है –
‘अक्षपादो महायोगी गौतमाख्योऽभवन्मुनिः।
गोदावरी समानेता अहल्यायाः पतिः प्रभुः ॥
- माहेश्वरखण्ड ५५।५ न्यायसूत्र में ५ अध्याय हैं।
- प्रथम तथा द्वितीय अध्यायों में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, द्रष्टा, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति एवं निग्रहस्थान – इन सोलह तत्त्वों का वर्णन है । इनके तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- वस्तुतत्त्व की यथार्थता का प्रमाणों के द्वारा निर्धारण करना तथा मोक्ष की प्राप्ति हेतु राग-द्वेष और मिथ्याज्ञान की निवृत्ति कराना- इस शास्त्र का उद्देश्य है ।
- राग-द्वेष का मूल कारण अविद्या या मिथ्याज्ञान है, जिसकी निवृत्ति होने पर सत्यतत्त्व की उपलब्धि हो जाती है ।
- न्यायशास्त्र विश्वसृष्टि के मूल में परमाणु, आत्मा तथा ईश्वर को स्वीकार करता है। जगत् का समवायिकारण परमाणु है तथा ईश्वर निमित्तकारण है।
- ईश्वर की इच्छा होने पर एक परमाणु दूसरे परमाणु से मिलकर द्वयणुक की उत्पत्ति करता है, एवं तीन द्वयणुकों के संयोग से त्र्यणुक ( त्रसरेणु ) की उत्पत्ति होती है और क्रमशः महाभूतों की सृष्टि के पश्चात् निखिल विश्वप्रपञ्च का विस्तार होता है।
- यह दर्शन आरम्भवाद के सिद्धान्त को मानता है । आरम्भवाद की दृष्टि में यह संसार विभिन्न परमाणुओं से निर्मित है।
- कारण में कार्य की सत्ता नहीं रहती है, प्रत्युत कार्य की उत्पत्ति एक नवीन घटना है ।