- मुख्य उपपाद्य विषय :- उन पदार्थों का विवेचन करना, जिनके मध्य जीवन पनपता-फूलता है।
- इसके प्रवर्तक – महर्षि कणाद या उलूक
- इस दर्शन का नाम ‘वैशेषिक कणाद’ तथा ‘औलूक दर्शन’ भी है।
- प्रतिपादक ग्रन्थ :- भाषापरिच्छेद, तर्कसंग्रह एवं मुक्तावली आदि ।
- वैशेषिक सिद्धान्त में आत्मा को अनेक माना गया है।
- समस्त अर्थतत्त्व को वैशेषिक छ: वर्गों (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय – इन छ: पदार्थों) में विभाजित कर उन्हीं का मुख्य रूप से उपपादन करता है।
- षडंग द्रव्य :- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय
- वैशेषिक को समानतन्त्र, समानन्याय एवं कल्पन्याय भी कहते हैं। इसमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और पञ्चम तत्त्व के विशेष होने से इसका नाम वैशेषिक पड़ा है।
- वैशेषिक दर्शन और पाणिनीय व्याकरण को सभी शास्त्रों का उपकारक माना गया है —
वैशेषिक पर प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, किरणावली, न्यायकन्दली, सेतु एवं दशपदार्थी आदि अनेक प्राचीन टीकाएँ हैं । इसका अनुवाद चीनी भाषा में भी है। अंग्रेजी में इसका अनुवाद प्रसिद्ध है ।
वैशेषिकसूत्र दस खण्डों में विभक्त है। इसमें आर्ष, प्रत्यक्ष, स्मृति आदि 4 प्रकार की शिक्षाएँ मानी गयी हैं । 348 से 358 सूत्रों में स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि आदि का परिचय देकर साधना से तत्त्व-साक्षात्कार की बात कही गयी है।
इसमें प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण माने गये हैं। इनके सूत्रों का आरम्भ ‘अथातो धर्मजिज्ञासा‘ से होता है। ‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः’ अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है, वह धर्म है ।
दो परमाणुओं से द्वयणुक एवं कतिपय द्वयणुक के संयोग से त्रसरेणु उत्पन्न होता है। इसी क्रम में घट, पट आदि होते हैं। यह दर्शन आरम्भवाद का सिद्धान्त मानता है।
इस शास्त्र में जीव के दुःख का कारण मिथ्या-ज्ञान को माना गया है। देह को आत्मा मानने से ही राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है। राग-द्वेष के कारण ही धर्माधर्म होता है। धर्म और अधर्म के फलस्वरूप ही सुख और दुःख का भोग होता है और यही संसार है ।
तत्त्वज्ञान ही वैशेषिक दर्शन का उद्देश्य है। तत्त्वज्ञान द्वारा शरीराभिमान नष्ट हो जाता है, तब शरीर ही दुःख है – यह ज्ञात हो जाता है । शरीराभिमान नष्ट होने के कारण मानव किसी की भी हानि के लिए सचेष्ट नहीं होता; क्योंकि वह राग-द्वेषरहित हो जाता है और आत्मकल्याण के लिए प्रवृत्त होता है।