दोषों का वर्णन, विकृत-अविकृत दोष, दोषों के स्थान एवं प्रकोपकाल

दोषों का वर्णन

वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः ।।६।।

तीन दोष माने जाते हैं –

  • वात
  • पित्त
  • कफ

विकृत – अविकृत दोष

विकृताsविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्तयन्ति च ।

  • ये तीनों वात आदि दोष विकृत (बढ़े हुए अथवा क्षीण हुए) शरीर का विनाश कर देते हैं और अविकृत (समभाव में स्थित) जीवनदान करते हैं अथवा स्वास्थ्य-सम्पादन करने में सहायक होते हैं।

दोषों के स्थान तथा प्रकोपकाल

ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योर्ध्वसंश्रयाः ७॥

  • ये तीनों वात आदि दोष समस्त शरीर में व्याप्त रहते हैं।
  • फिर भी नाभि से निचले भाग में वायु का, नाभि तथा हृदय के मध्य भाग में पित्त का और हृदय के ऊपरी भाग में कफ का आश्रयस्थान है ।

वय आदि के अनुसार काल

वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् ।

ये दोष सदा गतिशील (क्रियाशील) रहते हैं, तथापि वय के अन्तकाल (वृद्धावस्था) में, वय के मध्य (यौवन) काल में तथा वय के आदि (बाल्य) काल में और दिन-रात तथा भुक्त (भोजन कर चुकने) के अन्त, मध्य एवं आदि काल में विशेष रूप से गतिशील होते हैं।

दोष वयदिन-रातभोजन
वात प्रकोपअन्तकाल (वृद्धावस्था)अन्तिम भागअन्तिम भाग
पित्त प्रकोपमध्यकालमध्य भागमध्य भाग
कफ प्रकोपबाल्यकालआदि भागआदि भाग

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