1. भैषज्य कल्पना का ऐतिहासिक विवेचन कीजिए।
Ans. भैषज्य कल्पना के इतिहास को विवेचन की सुगमता के दृष्टिकोण से निम्न कालों में विभक्त किया जा सकता है –
1. वैदिक काल
2. संहिता काल
3. मध्य काल या रसशास्त्रीय काल
4. आधुनिक काल ।
1. वैदिक काल:-
ऋग्वेद :-
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ऋग्वेद के औषधि सूक्त तथा अन्य वेदों में अनेक औषधियों सोम, करञ्ज, पिप्पली, खदिरसार, शाल्मलि, विभीतक, दूर्वा, पलाश, कमल, बेर, अर्जुन, अश्वत्थ, पृश्निपणी, अपामार्ग, लाक्षा, अर्क, गुग्गुलु, बिल्ब, उर्दुम्बर आदि का वर्णन प्राप्त होता है।
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जिनमें सोम को प्रमुख औषधि माना गया है।
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“सोम औषधिनामाधिराजा” अर्थात् सोम नामक औषधि को औषधियों का राजा कहा गया है।
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वेदों में अनेक कल्पनाओं का प्रारम्भिक स्वरूप देखने को मिलता है।
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वेदों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि पञ्चविध कषाय कल्पना उस काल में अपना नवजातत्व व्यतीत कर रही थी।
अथर्ववेद :-
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अथर्ववेद में डण्डे, तीर या चोट से बने घाव के लिए सिलाची (लाक्षा) अचूक औषधि कही गई है।
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“आबय” नामक विषाक्त औषधि के स्वरस को पकाने पर निर्विष होने का उल्लेख मिलता है, वस्तुतः यह शृत कल्पना (क्वाथ) ही है।
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त्वचा के विषजन्य वैवर्ण्य को दूर करने के लिए इसी आबय को जल के साथ पीसकर करम्भ (लेप) बनाया जाता था, जो स्पष्ट रूप से “कल्क कल्पना” ही है।
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इस प्रकार आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद में महत्त्वपूर्ण उल्लेख मिलते हैं, इसलिए अथर्ववेद को “भिषग्वेद” या “भैषज्य वेद” भी कहा गया है।
2. संहिता काल
(i) चरक संहिता:-
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सूत्रस्थान के द्वितीय अध्याय में 32 यवागू और तृतीय अध्याय में : 32 सिद्धतम चूर्ण प्रदेह का वर्णन मिलता है।
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चतुर्थ अध्याय में मधुर कषाय, अम्ल कषाय, कटु कषाय, तिक्त कषाय एवं कषाय कषाय इन पाँच कषाय योनियों का वर्णन किया गया है।
“पञ्चकषाययोनय इति मधुरकषायोऽम्लकषायः कटुकषायस्तिक्तकषायः कषायकषायश्चेति तन्त्रे संज्ञा”। (च.सू. 4/6)
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उक्त पञ्च कषाय योनियों में पञ्चविध कषाय कल्पनाओं की उत्पत्ति मानी गयी है।
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यहाँ पर पाँच रसों से पञ्च कषाय कल्पनाओं की ही उत्पत्ति बतलायी है क्योंकि लवण रस के निष्प्रयोजन होने के कारण छठी कषाय योनि नहीं मानी गयी है।
“पञ्चविधं कषायकल्पनमिति तद्यथा-स्वरसः, कल्कः, शृतः, शीतः, फाण्टः कषाय इति”। (च.सू. 4/7)
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अर्थात् स्वरस, कल्क, शृत (क्वाथ), शीत (हिम) और फाण्ट पाँच प्रकार की कषाय कल्पनाएँ होती हैं।
“तेषां यथापूर्वम् बलाधिक्यम् अतः कषायकल्पना व्याध्यातुरबलापेक्षिणी न त्वेवं खलु सर्वाणि सर्वत्रोपयोगिनी भवन्ति ॥” (च. सू.4/7)
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अर्थात ये कषाय कल्पनाएँ यथापूर्व गुरु होती है, अतः इन कषाय कल्पनाओं का प्रयोग व्याधि एवं रोगी के बल पर निर्भर करता है, क्योंकि (because) पञ्चविध कषाय कल्पनाएँ सम्पूर्ण रोगों में समान रूप से उपयोगी नहीं होती है।
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इन मौलिक कल्पनाओं के अतिरिक्त अञ्जन, अवलेह, अणुतैल, उष्णोदक, खण्ड, गण्डूष, गुटिका, गुड, घृतपाक, तैलपाक, धूपन, धूमवर्ति, धूमपान, नवनीत, नस्य, आसव, अरिष्ट, मधु, सिक्थ तैल, शतधौत घृत, षडङ्गपानीय, सक्तु, सर्पिगुड, सहस्रधौत घृत आदि 128 कल्पनाओं का चरक संहिता में उल्लेख मिलता है।
(ii) सुश्रुत संहिता :-
सुश्रुत संहिता में 6 प्रकार की मौलिक कल्पनाएँ मानी है :
क्षीरं रसः कल्कमथो कषायः शृतश्च शीतश्च तथैव फाण्टम्।
कल्पाः षडेते खलु भेषजानां यथोत्तरं ते लघवः प्रदिष्टाः ।। (सु. सू. 44/91)
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अर्थात् क्षीर, स्वरस, कल्क, शृत (क्वाथ), शीत (हिम) और फाण्ट-इन छ: कल्पनाओं को आचार्य सुश्रुत ने मौलिक कल्पनाएँ माना है।
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इन कल्पनाओं के अतिरिक्त सुश्रुत संहिता में अञ्जन, अकृतयूष, अणु तैल, अयस्कृति, अवलेह, आलेप, इक्षुरस, नस्य, पानक, मधु, मन्थ, मस्तु, मासरस, मोदक, यवागू, लेह, लौहरजः, वटक, वर्ति, विलेपी, वेशवार, शष्कुली, षडङ्गपानीय, सक्तु आदि विविध कल्पनाओं का उल्लेख मिलता है।
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सुश्रुत संहिता के चिकित्सा स्थान के चतुर्थ अध्याय में वातरोगों में शतपाकी एवं सहस्रपाकी तैल कल्पना एवं लवण कल्पों का प्रयोग बताया गया है।
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इसके अतिरिक्त गुग्गुल कल्प, अयस्कृति कल्पना, मसी कल्पना तथा क्षारसूत्र कल्पना का सर्वप्रथम वर्णन मिलता है।
(iii) काश्यप संहिता :-
चूर्णं शीतकषायश्च स्वरसोऽभिषवस्तथा।
फाण्टःकल्कस्तथा क्वाथो यथावतं निबोध मे।। (का. सं. खि. 3/35)
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अर्थात् आचार्य काश्यप ने चूर्ण, शीत, स्वरस, अभिषव, फाण्ट, कल्क और क्वाथ-इन सात को मौलिक कल्पनाएँ माना है।
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जिनमें चूर्ण एवं अभिषव कल्पनाओं का पञ्चविध कषाय कल्पना में समावेश हो जाता है।
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अतः आचार्य चरकोक्त पञ्चविधकषाय कल्पनाएँ ही मौलिक कषाय कल्पनाएँ होती हैं।
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इनके अतिरिक्त धूपन, लेह, घृत, तैल, अरिष्ट, गुड़, रसक्रिया, बस्ति, अञ्जन, गुटिका, चूर्ण, पुष्प आदि कषाय कल्पनाओं का काश्यप संहिता में उल्लेख मिलता है।
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काश्यप संहिता के खिलस्थान में यूषों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
(iv) अष्टाङ्ग संग्रहः व अष्टाङ्ग हृदयः-
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आचार्य वाग्भट द्वारा विरचित इन दोनों ग्रन्थों में पञ्चविध कषाय कल्पनाओं को ही मौलिक कल्पनाएँ मानी है।
“पञ्चविधस्तु भेषजानां कषायकल्पः ।
निर्यासः कल्को नियूहः शीत: फाण्टश्च । ते यथापूर्वं बलिनः” (अ. सं. क. 8/9)
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दोनों ही ग्रन्थों में स्वरस, कल्क, क्वाथ, हिम और फाण्ट-इन पञ्चविध कषाय कल्पनाओं का उल्लेख मिलता है।
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इनके अतिरिक्त अन्य अनेक कल्पनाएँ यथा:-अञ्जन, अणुतैल, अवलेह, आश्च्योतन, इक्षुरस, उष्णोदक, ओदन, कवल, प्रसेक, फाणित, शतधौत घृत, शष्कुली, शिरोबस्ति, सक्तु, सर्पिगुड आदि विविध कल्पनाओं का उल्लेख मिलता है।
3. मध्यकाल या रसशास्त्रीय काल:-
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संहिता काल के पश्चात् रसाचार्य नागार्जुन द्वितीय ने अपने ग्रन्थों रसेन्द्र मंगल, रसरत्नाकर, कक्षपुट आदि में खनिजों पर अनेक धातुवादात्मक क्रियाओं का वर्णन किया है।
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इस काल में खनिज द्रव्यों की भैषज्य कल्पना का विकास हुआ।, जिसमें खनिज द्रव्यों का शोधन, मारण, सत्त्वपातन, द्रुति, पारद के विभिन्न संस्कार तथा अनेक औषधीय कल्पनाओं का विकास हुआ।
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इस काल में चिकित्सा की दृष्टि से खनिज द्रव्यों की भस्में, सत्त्वपातन, द्रुति, सत्त्व भस्म, रससिन्दूर आदि कूपीपक्व रसायनों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था।
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रसौषधियों के शीघ्रप्रभावकारी, अल्पमात्रा में उपयोगी आदि गुणों के कारण रस चिकित्सा को श्रेष्ठ माना जाने लगा।
(i) चक्रदत्त (11 वीं शताब्दी) :-
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आचार्य चक्रपाणि द्वारा लिखित इस ग्रन्थ में पर्पटी कल्पना का सर्वप्रथम वर्णन प्राप्त होता है।
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चिकित्सा की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
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इस ग्रन्थ में अवलेह, ओदन, कल्क, क्वाथ, क्षार, खण्ड, गुडपाक, चूर्ण, तैलपाक, अगद, अञ्जन, अर्कलवण, आश्च्योतन, कवल, काम्बलिक, क्षार सूत्र, क्षारगुड़, खड्यूष , गण्डूष, गुटिका, घृतपाक, तक्र, प्रमथ्या, फाणित, मन्थ, अरिष्ट, चुक्र, मांसरस, यूष, रसाला, रसक्रिया, वटिका, वर्ति, वेशवार, शिण्डाकी, स्वरस आदि कल्पनाओं का उल्लेख मिलता है।
(ii) गद निग्रहः-
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आचार्य सोढ़ल द्वारा 12 वीं शताब्दी में विरचित इस ग्रन्थ में तैलाधिकार, घृताधिकर, चूर्णाधिकार, लेहाधिकार, आसवाधिकार कल्पना विषयक विस्तृत वर्णन मिलता है।
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12वीं शताब्दी में मुस्लिमों के आक्रमण के पश्चात् यूनानी चिकित्सा प्रणाली का आगमन हमारे देश में हुआ, जिसके फलस्वरूप अर्क, खमीरा, गुलकन्द आदि का प्रचुरता से प्रयोग आयुर्वेद चिकित्सा में होने लगा।
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इसी काल में रचित ग्रन्थ अर्क प्रकाश में अर्क कल्पना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।
(ii) शार्ङ्गधर संहिताः-
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आचार्य शार्ङ्गधर मिश्र द्वारा 14 वी शताब्दी में इस ग्रन्थ को लिखा गया है।
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यह ग्रन्थ भैषज्य कल्पना का आधार स्तम्भ माना जाता है।
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इस ग्रन्थ के मध्यम खण्ड में स्वरस, क्वाथ, फाण्ट, हिम, कल्क, चूर्ण, वटक, अवलेह, घृत, तैल, आसवारिष्ट आदि का वर्णन किया गया है।
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इनके अतिरिक्त अञ्जन, अवगाहन, अनुवासनबस्ति, अवपीडन, आश्च्योतन, उष्णोदक, उत्तरबस्ति, ओदन, कर्णपूरण, लेप, वर्ति, विलेपी, षडङ्गपानीय, सक्तु, सेक आदि कल्पनाओं का वर्णन मिलता है।
4. आधुनिक काल:-
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16वीं शताब्दी के पश्चात् आधुनिक काल माना जाता है।
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इस काल में भावप्रकाश, बृहद्योगतरंगिणी, योगरत्नाकर, भैषज्यरत्नावली, सिद्धभेषजमणिमाला, रसतन्त्रसार एवं सिद्ध प्रयोग संग्रह, भारत भैषज्य रत्नाकर, सिद्धयोगसंग्रह, आयुर्वेदसार संग्रह आदि ग्रन्थ लिखे गए है।
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इन सभी ग्रन्थों में चूर्ण, क्वाथ, आसव, अरिष्ट, घृत, तैल, अवलेह आदि पूर्ववर्ती सभी कल्पनायें उल्लिखित है।
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भारतभैषज्यरत्नाकर भैषज्यकल्पना का बृहद् ग्रन्थ है, जो पाँच भागों में प्रकाशित है तथा इसमें अकारादि क्रम से औषधयोगों का वर्णन संग्रहित रूप में किया गया है।
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भारतीय आयुर्वेद योग संग्रह (Ayurvedic formulary of India-A.E.I) भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ है, जिसमें कल्पनाओं के अनुसार प्रधान योगों का वर्णन किया गया है।
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यह अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में प्रकाशित है। गुजरात सरकार द्वारा भी भेषज संहिता प्रकाशित की गई है।
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वर्तमान में औषधिनिर्माता कम्पनियाँ विभिन्न प्रकार के चूर्ण, वटी, कैप्सूल, अवलेह, ग्रेन्यूल्स, तैल, घृत, आसवारिष्ट, ड्राप्स, आदि कल्पनाओं को वर्तमान समय के अनुसार निर्माण कर विक्रय कर रही है।
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अतः यह कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में पञ्चविध मौलिक कषाय कल्पनाओं का प्रादुर्भाव हुआ था। लेकिन बाद में धीरे-धीरे अन्य कल्पनाओं का विकास होता गया।
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वर्तमान काल में भैषज्य कल्पना का विकसित स्वरूप दिखाई दे रहा है।