शिशिर ऋतु काल, वसन्त ऋतु काल, मध्याह्नचर्या,वसन्त ऋतु में अपथ्य

शिशिर ऋतुचर्या

अयमेव विधिः कार्यः शिशिरेऽपि विशेषतः ।
तदा हि शीतमधिकं रौक्ष्यं चादानकालजम् ॥17॥

  • शिशिर ऋतु में भी हेमन्त ऋतु में कही गयी विधियों का विशेष सेवन करना चाहिए।
  • क्योंकि इस ऋतु में शीत अधिक पड़ने लगती है तथा आदानकाल प्रारम्भ हो जाता है, अतः इसमें रूक्षता आने लगती है।

वसन्त ऋतुचर्या

कफश्चितो हि शिशिरे वसन्तेऽर्कांशुतापितः ।
हत्वाऽग्निं कुरुते रोगानतस्तं त्वरया जयेत् ॥18॥

  • शिशिर ऋतु में शीत की अधिकता के कारण स्वाभाविक रूप से सञ्चित कफ सूर्य की किरणों से पिघल कर अग्नि को नष्ट करता हुआ बहुत से रोगों (प्रतिश्याय आदि) को उत्पन्न करता है।
  • अतः इस ऋतु में उस कफ को निकालने का शीघ्र प्रयत्न करे।

तीक्ष्णैर्वमननस्याद्यैर्लघुरूक्षैश्च भोजनैः ।
व्यायामोद्वर्तनाघातैर्जित्वा श्लेष्माणमुल्बणम् ॥19

  • तीक्ष्ण वमन एवं तीक्ष्ण नस्य आदि का प्रयोग करना चाहिए।
  • लघु तथा रूक्ष भोजन करे।
  • व्यायाम, उबटन एवं आघात (पैरों से मर्दन) करे, जिससे बढ़ा हुआ कफदोष शान्त हो जाय।

स्नातोऽनुलिप्तः कर्पूरचन्दनागुरुकुङ्कुमैः ।
पुराणयवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलशूल्यभुक् ॥20॥

  • स्नान करके कर्पूर (Cinnamomum camphora), अगरु(Aquilaria agallocha), चन्दन (Santalum album) एवं कुंकुम (Crocus sativus) का शरीर पर अनुलेप करे।
  • भोजन में पुराना यव, गेहूँ, मधु एवं जांगल देश के प्राणियों के  मांस का शुल्य (लोहे की शलाका में पिरोकर उसे पकाना) का सेवन करें।

सहकाररसोन्मिश्रानास्वाद्य प्रिययाऽर्पितान्।
प्रियास्यसङ्गसुरभीन् प्रियानेत्रोत्पलाङ्कितान् ॥21

  • पके हुए सहकार (आम) का रस निकालकर, प्रिया के मुख से सुगंधित, प्रिया  के नेत्रकमलों से अङ्कित, मन को प्रसन्न करने वाले, हृदय को शक्ति देने वाला, ऐसे आम के रस का मित्रों के साथ बैठकर सेवन करे।

सौमनस्यकृतो हृद्यान्वयस्यैः सहितः पिबेत् ।
निर्गदानासवारिष्टसीधुमार्द्वीकमाधवान् ॥22।।

  • दोष रहित आसव, अरिष्ट, सीधु (इक्षुरस से बना मद्य), मार्द्वीक (द्राक्षा-सुरा) तथा माधव (महुआ की सुरा) का मित्रों के साथ बैठकर सेवन करे।

शृङ्गबेराम्बु साराम्बु मध्वम्बु जलदाम्बु च

  • पकाया हुआ अदरक (Zingiber officinale), साराम्बु (विजयसार) का जल, मधु मिश्रित जल अथवा जलद (मुस्ता/नागरमोथा) का क्वथित जल (पकाया जल) का सेवन करें।

मध्याह्नचर्या

दक्षिणानिलशीतेषु परितो जलवाहिषु ॥23॥
अदृष्टनष्टसूर्येषु मणिकुट्टिमकात्तिषु ।
परपुष्टविघुष्टेषु कामकर्मान्तभूमिषु ॥24॥
विचित्रपुष्पवृक्षेषु  काननेषु  सुगन्धिषु ।
गोष्ठीकथाभिश्चित्राभिर्मध्याहं गमयेत्सुखी ॥25॥

  • जो कानन (वन) दक्षिण दिशा की वायु में शीतल हो तथा चारों ओर जलप्रवाह हो रहा हो, वे इतने घने हो जहाँ पर कहीं सूर्य दिखलाई पड़ रहा हो और कहीं न दिखलाई पड़ रहा हो तथा ऐसा प्रतीत हो जैसे मणियों का सुन्दर कुट्टिम (फर्श) बना हो।
  • (परिपुष्टविघुष्टेषु) परिपुष्ट कोकिल कूक रही हो,(कामकर्मान्तभूमिषु) काम (मैथुन) निमित्त भूमि जहाँ हो, विविध प्रकार के पुष्प एवं वृक्ष हों तथा सब ओर सुगंध फैल रही हो।
  • ऐसे लक्षण युक्त कानन में मध्याह्न में गोष्ठी, कथा एवं मित्रों के साथ व्यतीत करें ।

वसन्त ऋतु में अपथ्य

गुरुशीतदिवास्वप्नस्निग्धाम्लमधुरांस्त्यजेत् ।

  • इस ऋतु में गुरु एवं शीत पदार्थों का सेवन, दिन में शयन, स्निग्ध, अम्ल एवं मधुर रसों का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये सभी कफवर्धक होते हैं।

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