वर्षा ऋतुचर्या, शरीर शुद्धि , सेवनीय विहार, त्याज्य विहार

वर्षा ऋतुचर्या

आदानग्लानवपुषामग्निः सन्नोऽपि सीदति ।
वर्षासु दोषैर्दुष्यन्ति तेऽम्बुलम्बाम्बुदेऽम्बरे ॥42॥

सतुषारेण मरुता सहसा शीतलेन च ।
भूबाष्पेणाम्लपाकेन मलिनेन च वारिणा ॥43॥

वह्निनैव च मन्देन, तेष्वित्यन्योऽन्यदूषिषु ।
भजेत्साधारणं सर्वमूष्मणस्तेजनं च यत् ॥44॥

  • आदान काल (शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म) के प्रभाव से शरीर दुर्बल एवं जठराग्नि मन्द होती है।
  • वर्षा ऋतु में वातादि दोषों के प्रभाव से जठराग्नि और भी मन्द हो जाती है।
  • क्योंकि वे दोष जल से भरे बादलों द्वारा आकाश में छाये रहने पर तुषार से युक्त सहसा शीतल हुए वायु के स्पर्श से, भूमि में उठी भाप से, आहार के अम्ल विपाक होने से, तथा मलिन जल के प्रकोप से जठराग्नि मन्द होने से कुपित हो जाती है और वे दोष परस्पर एक-दूसरे को दूषित करने लगते हैं।
  • इस प्रकार दोषों के परस्पर दूषित होने से साधारण आहार-विहार का सेवन करना चाहिए।
  • साथ ही विशेषरूप से अग्नि को प्रदीप्त करने वाले आहार-विहार का सेवन करे ।

शरीर शुद्धि

आस्थापनं शुद्धतनुर्जीर्णं धान्यं रसान् कृतान् ।
जाङ्गलं पिशितं यूषान् मध्वरिष्टं चिरन्तनम् ॥
मस्तु सौवर्चलाढ्यं वा पञ्चकोलावचूर्णितम् ।
दिव्यं कौपं शृतं चाम्भो भोजनं त्वतिदुर्दिने ॥46॥
व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु ।

  • वमन-विरेचन से शरीर का शोधन करके अस्थापन बस्ति लेवे।
  • पुराने यव, गेहूँ आदि सुपाच्य पदार्थों को खाये।
  • स्नेह, शुण्ठी आदि से युक्त मांसरस, हरिण आदि जांगल देशीय प्राणियों का मांस, मूँग आदि दालों का यूष, पुराना मधु, पुराना अरिष्ट, मस्तु (दधिमण्ड), सौवर्चल लवण युक्त अथवा पञ्चकोल चूर्ण को मिलाकर सेवन करे।
  • (पञ्चकोल = पिप्पली, पीपलीमूल, चव्य, चित्रक, नागरमोथा)
  • अन्तरिक्ष का जल, कुएँ का जल अथवा पकाकर शीतल किया हुआ जल सेवन करे ।
  • (अतिदुर्दिन) जिस दिन वर्षा हो रही हो, उस दिन अम्ल-लवण रस का स्निग्ध व शुष्क मधु युक्त लघु भोजन करें।

सेवनीय विहार

अपादचारी  सुरभिः सततं धूपिताम्बरः ॥47॥
हर्म्यपृष्ठे वसेद्वाष्पशीतशीकरवर्जिते ।

  • वर्षा ऋतु में नंगे पैरों से गीली भूमि में तथा कीचड़ में नहीं चलना चाहिए
  • (सुरभि) सुगन्धित अगुरु (Aquilaria agallocha) आदि का लेप करे, (धूपिताम्बर) वस्त्रों में सुगन्धित अगुरु आदि का धूपन करें।
  • (हर्म्य पृष्ठे) घर के ऊपरी हिस्से में निवास करना चाहिए, जहाँ पृथ्वी से निकलने वाली वाष्प (भाप), शीत, शीकर (वर्षा की बौछार) न लगती हो।

त्याज्य विहार

नदीजलोदमन्थाहःस्वप्नायासातपरित्यजेत्  ॥48॥

  • नदियों का जल, मन्थ (सत्तू), (अह:स्वप्न) द्विवास्वाप (आयास) व्यायाम एवं धूप का सेवन त्याग देना चाहिए।