अथात आरग्वधीयमध्यायं व्याख्यास्यामः 1
अथात आरग्वधीयमध्यायं व्याख्यास्यामः 1
द्वितीय अध्याय में अन्तःपरिमार्जन ( भीतरी शरीर – शोधन ) के उपयोगी पञ्चकर्म सम्बन्धी औषध – द्रव्यों का वर्णन किया गया है । इसके बाद चिकित्सा के दूसरे प्रकार ‘ बहिःपरिमार्जन ‘ के उपयोगी द्रव्यों का वर्णन और उनके प्रयोग – विधान तथा प्रशस्ति का उपदेश इस अध्याय में किया जायेगा ।
बाह्य प्रयोगार्थ बत्तीस सफल योग:-
आरग्वधः सैडगजः करो वासा गुडूची मदनं हरिद्रे ।
श्रयाह्वः सुरातः खदिरो धवश्च निम्बो विडङ्गं करवीरकत्वक् ॥ ३ ॥ ग्रन्थिश्च भौ।
लशुनः शिरीषः सलोमशो गुग्गुलुकृष्णगन्धे ।
फणिज्झको वत्सकसप्तपर्णो पीलूनि कुष्ठं सुमनःप्रवालाः । । ४ ॥
वचा हरेणुस्त्रिवृता निकुम्भो भल्लातकं गैरिकमञ्जनं च । ।
मनःशिलाले गृहधूम एला कासीसलोध्रार्जुनमुस्तसर्जाः ॥ ५ ॥
इत्यर्द्धरूपैर्विहिताः षडेते गोपित्तपीताः पुनरेव पिष्टाः ।
सिद्धाः परं सर्षपतैलयुक्ताश्चूर्णप्रदेहा भिषजा प्रयोज्याः ॥ ६ ॥
कुष्ठानि कृच्छ्राणि नवं किलासं सुरेशलुप्तं किटिभं सदद्रु ।
भगन्दराऑस्यपची सपामां हन्युः प्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम् ॥ ७ ॥
बहिःपरिमार्जन के छः प्रयोग ( 1- 6 ) :-
( 1) अमलतास ( आरग्वध ) के पत्ते , एडगज ( चकवड़ ) के बीज , करञ्ज के बीज , वासा , गुडूच , मदन , हरिद्रा तथा दारुहरिद्रा ;
( 2 ) गन्धविरोजा , देवदारु , खदिर , धव , नीम , विडंग तथा कनेर की छाल ;
( 3 ) भोजपत्र की गाँठे , लहसुन , शिरीष , लोमश , गुग्गुल तथा कृष्णगन्ध ( सहिजन ) की छाल ;
( 4 ) फणिज्झक ( वनतुलसी , तुलसीभेद ) , वत्सक , सप्तपर्ण , पीलु , कुष्ठ तथा चमेली के कोमल नये पत्ते ;
( 5 ) वचा , हरेणु , त्रिवृत् , निकुम्भ , भल्लातक तथा गैरिक एवं अंजन ;
( 6 ) मैनसिल, हरताल, गृहधूम, एला (छोटी इलायची), कासीस, लोध्र, अर्जुन, नागरमोथा तथा सर्ज
- इनमें से प्रत्येक औषध का चूर्ण बनाकर उसमें गोपित्त ( गोरोचन ) की भावनाएँ दें , जिससे चूर्ण का वर्ण पीला हो जाये ।
- फिर इन्हें पुनः पीसकर सरसों का तेल मिलाकर चिकित्सक इनका लेप करायें ।
- इन लेपों के लगाने से कृच्छ्रसाध्य कुष्ठ , नया श्वेत कुष्ठ ( Leucoderma ) , इन्द्रलुप्त ( Alopecia ) , किटिभ ( कुष्ठभेद / Psoriasis ) , दाद ( Ring worm ) , भगन्दर ( Fistula – in – ano ) , अर्श ( Piles ) , अपची ( Cervical adenitis ) तथा पामा ( Scabies ) रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ।