Charak Samhita 1 – Ayurveda ka Adhikarana –त्रिदण्ड और आयुर्वेद का अधिकरण– Ayurveda ka paryojan – Dosha

 

                                           प्रयोजनं चास्य स्वस्थ्यस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च ।

 

This Post contains a brief description on :-

  • त्रिदण्ड और आयुर्वेद का अधिकरण
  • आयुर्वेद का प्रयोजन
  • रोगों के त्रिविध हेतु
  • दोष एवं उनका चिकित्सासूत्र

त्रिदण्ड और आयुर्वेद का अधिकरण :-

सत्त्वमात्मा शरीरं च त्रयमेतत्रिदण्डवत् । लोकस्तिष्ठति संयोगात्तत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।

त्रिदण्ड :-

  • मन/सत्त्व
  • आत्मा और
  • शरीर

इन्हीं तीनों के संयोग से यह (जीवात्मायुक्त पुरुष) लोक स्थित है और इसी लोक में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है, अर्थात् इस लोक में ही कर्म, कर्मफल, ज्ञान, मोह, सुख, दुःख इत्यादि प्रतिष्ठित हैं।

*इस (सत्त्वात्म – शरीरसंयोग) को ही पुमान् कहते हैं , इसे ही चेतन भी कहते हैं और यही संयोगपुरुष आयुर्वेद का अधिकरण (आश्रय) है।*


आयुर्वेद का प्रयोजन :-

कार्यं धातुसाम्यमिहोच्यते ।

धातुसाम्यक्रिया चोक्ता तन्त्रस्यास्य प्रयोजनम् ।।

  • आयुर्वेद में धातुसाम्य (आरोग्य) को ‘ कार्य ‘ कहा जाता है, क्योकि रस – रक्तादि धातुओं में समता स्थापित करना ही आयुर्वेदशास्त्र का प्रयोजन है ।

प्रयोजनं चास्य स्वस्थ्यस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च ।

  • स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा
  • रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना – आयुर्वेद का प्रयोजन है।

रोगों के त्रिविध हेतु

कालबुद्धीन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च ।
द्वयाश्रयाणां व्याधीनां त्रिविधो हेतुसंग्रहः ।।

  1. काल/परिणाम : -वर्षा आदि ऋतुएँ
  2. बुद्धि ( प्रज्ञा )
  3. इन्द्रियार्थ ( शब्द – स्पर्श – रूप – रस – गन्ध)
  • इनका मिथ्यायोग , अयोग और अतियोग का होना ही शरीर या मन में होने वाले सभी रोगों के संक्षेप में तीन प्रकार के कारण हैं।

दोष एवं उनका चिकित्सासूत्र :-

वायुःपित्तं कफश्चोक्तः शारीरो दोषसंग्रहः ।

मानसः पुनरुद्दिष्टो रजश्च तम एव च।।

  • शारीरिक दोष :- वायु , पित्त और कफ
  • मानसिक दोष :- रज और तम

प्रशाम्यत्यौषधैः पूर्वो दैवयुक्तिव्यपाश्रयैः ।

मानसो ज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः ।।

 


चिकित्सासूत्र :-

त्रिविधमौषधम् दैवव्यपाश्रयं युक्तिव्यपाश्रयं सत्त्वावजयश्चेति ।

  • मन को अहितकर विषयों से हटाना ही ‘सत्त्वावजय’ कहलाता है।
  • चिकित्सा कर्म में मनोऽनुकूल सफलता तभी प्राप्त होती है जब कि चिकित्सोपयोगी ‘दशविध परीक्ष्य’ को सही – सही जानकर ही चिकित्सा कर्म प्रारम्भ किया जाय ।


 


0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *