पारद के अष्टविध संस्कार- (Parad ke astvidh sanskaar)
पारद के अष्टविध संस्कार :
स्वेदनं मर्दनं चैव मूर्च्छनोत्थापने तथा ।
पातनं बोधनं चैव नियामनमतः परम् ।।
दीपनञ्चेति संस्काराः सूत्स्याष्टौ प्रकीर्तिताः ।।
1. स्वेदन
2. मर्दन
3. मूर्च्छन
4. उत्थापन
5. पातन
6. रोधन
7. नियामन
8. दीपन
प्रथम पांच संस्कारों से पारद सर्वदोषमुक्त हो जाता है, शेष तीन संस्कारो द्वारा पारद में बल एवं तेज की वृद्धि होती है।
काञ्जी निर्माण विधि :-
आवश्यक सामग्री-
1. चावल | 1 किलोग्राम |
2. कुलत्थ | 1 किलोग्राम |
3. राई | 500 ग्राम |
4. सैंधव लवण | 1 किलोग्राम |
5. हरिद्रा | 250 ग्राम |
6. बांस की पत्ती | 250 ग्राम |
7. जीरा | 100 ग्राम |
8. शुण्ठी | 100 ग्राम |
9. शुद्ध हींग | 50 ग्राम |
10. सर्षप तैल 11. उड़द आटा 12. जल |
250 ml
250 ग्राम 10 L |
1. सर्वप्रथम चावल को 2 लीटर जल में पकाकर भात बनावे ।
2. कुल्तथ को 8 लीटर जल में पकाकर 2 लीटर क्वाथ बना ले ।
3. चूर्ण करने योग्य राई, सिंदूर, हरिद्रा, जीरा, शुण्ठी एवं घी में भुने हुये शुद्ध हींग का पृथक-पृथक चूर्ण करे ।
4. हरे बांस के पत्तों को काटकर छोटे छोटे टुकड़े कर लें।
5. उड़द के आटे का सरसों तेल में वटक बना लें ।
6. एक बड़ा भाण्ड लेकर उसके अन्दर तैल का लेप कर उसमें जल, भात, कुलत्थ क्वाथ, हींग, लवण एवं शेष सभी द्रव्यों को डालकर अच्छी तरह मिला दें ।
(पात्र में सभी द्रव्य डालने पर भी चौथाई भाग खाली रहना चाहिए।)
7. इसके पश्चात पात्र का मुख एक शराव से ढककर कपड़ मिट्टी करके सुरक्षित स्थान पर रख दें ।
इस प्रकार 10-12 दिन में कांजी तैयार हो जाती है।
पारद अष्टविध संस्कारों की विधियाँ-
1. स्वेदन संस्कार-
क्षाराम्लैरौषधैर्वापि दोलायन्त्रे स्थितस्य हि ।
पचनं स्वेदनाख्यं स्यात् मलशैथिल्यकिरकम् ।।
- क्षार एवं अम्ल औषधियों के साथ पारद को दोलायंत्र में पकाकर जो कर्म किया जाता है, उसे स्वेदन कहते हैं ।
इससे पारद का मल शिथिल हो जाता है ।
2. मर्दन संस्कार :-
उदितैरौषधैः सार्धं सर्वाम्लैः काञ्जिकैरपि ।
पेषणं मर्दनाख्यं स्याद् बहिर्मलविनाशनम् ।।
- मर्दन संस्कारार्थ कथित औषधि, अम्लद्रव्य, काञ्जी के साथ पारद को घोटने की क्रिया को मर्दन कहते हैं ।
इससे पारद में स्थित बाह्य मल का नाश हो जाता है।
3. मूर्च्छन संस्कार :-
मूर्च्छनोद्दिष्टभैषज्यैर्नष्टपिष्टत्वकारकम् ।
तनमूर्च्छनं हि सम्प्रोक्तं सर्वदोषविनाशनम् ।।
- मूर्च्छन संस्कारार्थ उक्त औषधियों (घृतकुमारी, त्रिफला और चित्रक) के साथ पारद को नष्ट पिष्ट हो जाने तक घोंटने की प्रक्रिया को मूर्च्छन कहते हैं ।
- इससे पारद का विष, वह्नि और मल आदि सर्व दोष नष्ट हो जाते हैं ।
4. उत्थापन संस्कार :-
स्वेदातपादियोगेन स्वरूपाऽऽपादानं हि यत् ।
तद् उत्थापनमित्युक्तं मूर्च्छाव्याप्तिनाशनम् ।।
- स्वेदन, आतप, प्रक्षालन आदि क्रियाओं द्वारा पारद को अपने स्वरूप में लाने की क्रिया को उत्थापन संस्कार कहते हैं ।
5. पातन संस्कार :-
उक्तौषधैर्मर्दितपारदस्य यन्त्रस्थितस्योर्ध्वमधश्च तिर्यक् ।
निर्यातनं पातनसंज्ञमुक्तं वङ्गादिसम्पर्कजकञ्चुकघ्नम् ।।
- पातन संस्कार हेतु उक्त औषधियों द्वारा पारद का मर्दन करके ऊर्ध्व, अधः एवं तिर्यक् पातन यन्त्र द्वारा पारद को प्राप्त करना पातन कहलाता है ।
- इससे पारद स्थित नाग-वङ्ग के सम्पर्क से उत्पन्न कञ्चुक दोषों का नाश होता है ।
पातन के प्रकार –
i. ऊर्ध्व पातन – (पारद का ऊपर की ओर गमन)
- इसमें नीचे के पात्र मे पारद होता है तथा उसी पात्र को नीचे से अग्नि देते हैं ।
- ऊपर के पात्र को जल से ठण्डा रखकर ऊर्ध्वपातित पारद को प्राप्त करते हैं ।
ii. अधः पातन – (पारद का नीचे की ओर गमन)
- इसमें पारद ऊपर के पात्र में होता है तथा अग्नि भी ऊपर से ही दी जाती है।
- नीचे के पात्र में जल होता है, जिसमे अधः पातित पारद को प्राप्त करते हैं ।
iii. तिर्यक् पातन –
- एक पात्र मे पारद भरकर अग्नि पर रखा जाता है ।
- यह पात्र एक नली से जुड़ा होता है और नली का दूसरा सिरा जलयुक्त पात्र में होता है।
- जलयुक्त पात्र में वाष्पीभूत पारद शीतल जल के सम्पर्क से द्रवस्वरूप में एकत्र होता है ।
अतः त्रिविध पातन मे जहाँ पारद हो वहां अग्नि की व्यवस्था तथा जहाँ पारद प्राप्त करना हो वहां जल की व्यवस्था की जाती है ।
6. बोधन/रोधन संस्कार :-
मर्दनादिकयोगेन जातक्लैब्यस्य शूलिनः ।
क्लैब्यापहं तु यत्कर्म बोधनं कथ्यते बुधैः ।।
- स्वेदन संस्कार से पातन संस्कार तक की प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पारद क्लान्त, मन्द, षण्ड एवं मरणासन्न हो जाता है ।
उसमें पुनः वीर्योत्कर्ष के लिए की जाने वाली प्रक्रिया को बोधन कहते हैं ।
7. नियमन संस्कार:-
रोधनाल्लब्धवीर्यस्य चपलत्वनिवृत्तये ।
क्रियते पारदे स्वेदः प्रोक्तः नियमनं हि तत् ।।
- बोधन/रोधन संस्कार द्वारा वीर्योत्कर्ष प्राप्त पारद के चपलत्व को नियंत्रित करने हेतु की जाने वाली स्वेदन क्रिया को नियमन संस्कार कहते हैं ।
8. दीपन संस्कार :-
लेलिहानो हि धातूंश्च पीड्यमानो बुभुक्षया ।
अमुनैव प्रकर्तव्य रसराजस्य दीपनम् ।।
- दीपन से पारद में बुभुक्षा की वृद्धि होती है, जिस प्रकार भुखे प्राणी में भोजन की इच्छा उत्पन्न होने से सामने रखे अन्न को शीघ्र खा लेता है, ठीक उसी प्रकार दीपन संस्कार से पारद स्वर्णादि को शीघ्र ग्रसित कर लेता है ।