परिचय
परिचय
गण – शोथहर (च.); वृहत् पञ्चमूल, अधोभागहर, आरग्वधादि (सु.)
कुल – श्योनाक
कुल (Family) – बिगनोनिएसी – Bignoniaceae
लैटिन नाम – Stereospermum suaveolens
पर्याय
पर्याय
- पिटला – पुष्प पाटलवर्ण- (रक्ताभ होने के कारण)
- कृष्ण वृन्त – काले डंठल वाली
- मधुदूति
- अलिवल्लभा – पुष्प सुगंधित और मधुमय होने से इनकी ओर भ्रमर अधिक आकर्षित होते हैं ।
- ताम्रपुष्पी – ताम्रवर्ण के पुष्पों से युक्त
- कुबेराक्षी – नेत्रवत् बीज होने के कारण
- अमोघा – अव्यर्थ औषध
- कुम्भीपुष्पी – कुम्भाकार पुष्प युक्त
- अम्बुवासिनी – अनूपदेशज
स्वरूप
स्वरूप
- इसके वृक्ष 30-60 फीट ऊँचे होते है।
- काण्ड– बाहर से धूसरवर्ण होता है और भीतर से पीताभ होता हैं।
- पत्र– अभिमुख, ११/२ फुट लम्बे, पक्षवत् और विषमदल होते हैं।
- पुष्प– पीताभ रक्त वर्ण या ताम्र, भीतर पीली धारियों से युक्त, सुगन्धित, ११/२ इञ्च लम्बे, बङी ग्रन्थिल – रोमश मञ्जरियो में होते हैं।
- फली– १.५ फीट लम्बी और ३/४ इञ्च व्यास की, सूक्ष्मरोमश, चार सिराओ से युक्त, पृष्ठ भाग पर बिन्दु कित तथा गांठदार होती हैं।
- बीज– १-१.५ इञ्च लम्बे, बीज में खातयुक्त होते हैं।
जातियां
जातियां
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रासायनिक संघटन
रासायनिक संघटन
- इसकी छाल से गहरे रंग की एक गोन्द निकलती हैं। इसमें एक तिक्त पदार्थ भी होता है।
रस पंचक
रस पंचक
गुण |
लघु, रूक्ष |
रस |
तिक्त, कषाय |
विपाक |
कटु |
वीर्य |
उष्ण |
प्रभाव |
– |
कर्म
कर्म
दोषकर्म:-
- यह त्रिदोषशामक है।
- रूक्ष-लघु होने से कफ का, तिक्त कषाय होने से पित तथा उष्ण वीर्य होने से वात का शमन करता है।
- विशेषतः छाल कफवातशामक और पुष्प फल वात पित्त शामक होते हैं।
संस्थानिक क्रम:-
- बाह्य – यह वेदना स्थापना एवं व्रणरोपण है।
- आभ्यन्तर नाड़ीसंस्थान – यह वेदनास्थापन करता है।
पाचन संस्थान:-
- यह रूचिवर्धक, तृष्णा शामक, ग्राही एवं यकृदुतेजक है।
- इससे आमाशयगत अम्लता कम होती हैं।
रक्तवह संस्थान:-
- इसकी छाल शोथहर तथा पुष्प हृद्य हैं।
श्वसन संस्थान:-
- यह कफघ्न और हिक्का निग्रहण है।
मूत्रवहसंस्थान:-
- यह मूत्रल और अश्मरीनाशक है।
प्रजनन संस्थान:-
- इसके पुष्प वाजीकरण हैं।
तापक्रम:-
- यह ज्वरघ्न तथा दाहप्रशमन है ।
सात्मीकरण:-
पुष्प मधुर होने से पौष्टिक होते है।
प्रयोग
दोषप्रयोग:-
- यह त्रिदोषजन्य विकारों में प्रयुक्त होता है।
- छाल का प्रयोग कफवातज विकारो तथा पुष्पो का प्रयोग वात पैत्तिक विकारों में करते है।
संस्थानिक प्रयोग:-
बाह्य –
- इसके पत्र कल्क का लेप व्रणो में करते है।
- इसके बीजों को घिस कर अर्धावभेदक (अधकपारी) में ललाट में लगाते हैं।
आभ्यन्तर नाडीसंस्थान –
- यह वात व्याधि में प्रयुक्त होता है।
पाचन संस्थान:-
- यह अरूचि, तृष्णा, अतिसार एवं अर्श में प्रयुक्त होता है। अम्ल पित्त में इसकी छाल का फाण्ट देते है।
रक्तवह संस्थान:-
- इसकी छाल का प्रयोग शोथरोग में तथा पुष्पो का हृद्रोग में करते है।
श्वसनसंस्थान:-
- यह कास श्वास में प्रयुक्त होता है। इसके पुष्पो को मधु के साथ मिलकर देने से हिक्का रोग शान्त होता हैं।
मूत्रवहसंस्थान:-
- यह मूत्राघात तथा अश्मरी रोग में प्रयुक्त होता है, इन रोगों में इसका क्षार देते हैं।
प्रजनन संस्थान :-
- शुक्र दौर्बल्य में इसके पुष्पों का सेवन किया जाता है।
प्रायोज्य अंग – मूलत्वक्, पुष्प, बीज, पत्र, क्षार ।
मात्रा – मूलत्वक्, क्वाथ- ५०-१०० मि• लि•; क्षार १- १.५ ग्राम
विशिष्ट योग – वृहत पंचमूलादि क्वाथ