Charak Samhita – aaragvadh – 3

अथात आरग्वधीयमध्यायं व्याख्यास्यामः 3

(16) कोलादि लेप :-

  • बेर, कुलथी, देवदारु, रास्ना, उड़द, तैलफल – सरसों, एरण्डबीज, तिल आदि, कूठ, वच, सौफ, यव का चूर्ण – इन सबका चूर्ण लेकर काञ्जी में पीसकर सुखोष्ण बनाकर वातरोग से पीड़ित व्यक्ति का लेप करायें ।
  • यह वातहर लेप है।

(17) वातहर लेप :-

  • जलेचर पशु – पक्षियों का मांस और समभाग मछली के मांस से बने ‘ वेशवार ‘ का सुखोष्ण प्रलेप वातरोग की पीड़ा शान्त करता है ।

(18) द्वितीय वातनाशक लेप :-

  • गन्धद्रव्यों ‘ और दशमूल ( सरिवन , पिठवन , बृहती , कण्टकारी , गोखरू , बेल , गम्भारी , अग्निमन्थ , पाटला तथा श्योनाक ) को पीसकर उसमें घी , तेल , वसा तथा मज्जा मिलाकर गरम लेप लगाने से वातरोग दूर होता है ।

(19) उदरशूलनाशक लेप :-

  • मढे में जौ के आटे को यवक्षार मिलाकर पीसकर गरम लेप करने ।
  • उदरशूल नष्ट हो जाता है ।

(20) वातव्याधिहर लेप :-

  • कूठ, सौंफ, वच तथा यव के आटे को कॉजी में पीसकर तिल का तेल मिलाकर गरम लेप करने से वातरोग नष्ट होते हैं ।

(21) वातरक्तहर लेप :-

  • सौंफ , सोया , मुलहठी , महुआ , बला , प्रियाल , कसेरू , घी , विदारी और मिश्री को एक में पीसकर वातरक्त में लेप करना चाहिए ।

(22) वातरक्तज वेदनाहर लेप :-

  • रास्ना , गुडूची , मुलहठी , बला , नागबला , जीवक तथा ऋषभक – इन सबको समभाग लेकर चूर्णकर सब चूर्ण के वजन का चौगुना घी और सोलह गुना गोदुग्ध मिलाकर पाक करें ।
  • जब घी मात्र बचे तो उसमें मोम पिघलाकर मिला लें । इस लेप के लगाने से वातरक्त की पीड़ा शान्त होती है ।

(23) गोधूमादि लेप :-

  • गेहूँ का आटा , बकरी का दूध और घृत एकत्र मिला कर पुल्टिस बाँधने या लेप करने से वातरक्त की वेदना शान्त होती है।

(24) शिरःशूलहर लेप :-

  • तगर , उत्पल , सफेदचन्दन , कूठ को घी के साथ घोंटकर उसे लेप करने शिरःशूल मिट जाता है ।

(25) प्रपौण्डरीकादि लेप :-

  • प्रपौण्डरीक, देवदारु, कुष्ठ, मधुयष्टी, एला, कमल, लोह (अगर), उत्पल, एरका, पद्मकाठ तथा चोरक ( चोरपुष्पी ) – इन औषधियों को पीसकर घी मिला कर लेप करने से शिर की पीड़ा शान्त हो जाती है ।
  • लौहादि शिरःशूलहर लेप –

अगर , एरका ( तृणविशेष पटेरा ) , पद्मकाठ और चोरपुष्पी को पीसकर घी मिलाकर लेप करने से शिर की पीड़ा शान्त हो जाती है ।


(26) पार्श्वभूलनाशक लेप :-

  • रास्ना , हरिद्रा , दारुहरिद्रा , नलद ( जटामांसी ) , सौंफ , सोया , देवदारु , मित्री तथा जीवन्ती
  • इन सबको पीसकर घृत और तेल मिलाकर सुखोष्ण लेप लगाने से पसली की पीड़ा शान्त होती है ।

(27) दाहशामक लेप :

  • शैवाल , पद्म , उत्पल , वेत , तुङ्ग ( नागकेशर ) , प्रपौण्डरीक , खस , लोध्र , प्रियंगु , कालीयक तथा चन्दन
  • इन्हें एकत्र पीसकर घी मिलाकर लेप करने से दाह शान्त होता है ।

(28) द्वितीय दाहशामक लेप :-

  • मिश्री , मजीठ , वेतस , पद्मक , मधुयष्टी , इन्द्रवारुणी , कमल , दूर्वा , जवासामूल , कुश , कास , जल तथा एरका
  • इन सबको खूब बारीक पीसकर लेप लगाने से जलन मिटती है।

(29) शीतनाशक लेप :-

  • शैलेय , एला , अगरु , कूठ , चण्डा , तगर , त्वक् ( दालचीनी ) , देवदारु तथा रास्ना
  • इन सबको एकत्र पीसकर लेप लगाने से शीघ्र ही शीत का निवारण हो जाता है ।

(30) विषघ्न लेप :-

  • शिरीष तथा सिन्धुवार ( मेउड़ी ) की छाल के लेप से विष का नाश होता है ।

(31) स्वेदहर लेप :-

  • शिरीष की छाल , लामज्जक , हेम ( नागकेशर ) तथा लोध्र – इन सबका लेप लगाने या त्वचा पर चूर्ण को मलने से त्वचा के विकार और अतिस्वेद विकार नष्ट होते हैं ।

(32) पत्रादि लेप :-

  • तेजपात , सुगन्धबाला , लोध्र , अभय ( खस ) तथा चन्दन का लेप दुर्गन्धनाशक होता है ।


आरग्वधीयमध्यायं व्याख्यास्यामः 1

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