उदकवह स्रोतस की व्याधियां || udakvah sarotas diseases


उदकवह स्रोतस परिचय

उदकवहानां स्रोतसां तालुमूलं क्लोम च,
प्रदुष्टानां तु खल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति,
तद्यथा- जिह्वाताल्वोष्ठकण्ठक्लोमशोषं पिपासां चातिप्रवृद्वां दृष्टोदकवहान्यल्य स्रोतांसि प्रदुष्यनीति विद्यात्। (च. वि. 5/8)
  • उदकवह स्रोतस का मूल तालु व क्लोम हैं।
  • आचार्य चरक मतानुसार उदकवह स्रोतस के दुष्ट होने पर जिह्वा, तालु, ओष्ठ, कण्ठ, क्लोम, शोष तथा अति प्रवृद्ध पिपासा उत्पन्न होती है।

उदकवहे द्वे, तयोर्मूलं तालु क्लोम च,
तत्र विद्धस्य, पिपासा सधोमरण च।
  • आचार्य सुश्रुत मतानुसार उदकवह स्रोतस दुष्टि से पिपासा तथा सधोमरण हो सकता है।
 

उदकवह स्रोतस की दुष्टि के हेतु

औष्ण्या दामाद्भ्यात् पानादतिशुष्कान्न सेवनत ।
अम्बुवाहीनि दूषयन्ति तृष्णायश्चाति पीडनम्।। (च. वि. 5 /11 )
कार्यातृष्णोपशमनी तथैवामप्रदोषिकी। (च.वि. 5/2 )
  • आचार्य चरक ने आमदोष, उष्ण आहार विहार, भय, मद्यपान, शुष्कान्न सेवन तथा तृष्णा के वेग के धारण करने को उदकवह स्रोतस की दुष्टि का हेतु बताया है।

  • मानव शरीर में सर्वाधिक 10 अंजलि मात्रा उदक की है। उदक का कार्य क्लेदन बताया गया है।
  • उदक मूत्र वह स्रोतस से निकलने पर मूत्र तथा स्वेदवह स्रोतस से निकल ने पर स्वेद संज्ञा से जाना जाता है।
  • अतः उदकवह स्रोतस का सम्बन्ध मूत्र तथा स्वेद की प्रकृति विकृति से भी है।
  • रस, रक्त, लसीका, स्वेद व मूत्र, इन सभी का प्रमुख घटक उदक ही है।
  • तृष्णा रोग में उदयक्षय तथा जलोदर में उदर प्रदेश में त्वक मांसान्तर में जल का संचय हो जाता है ।
उदक वह स्रोतो दुष्टि जन्य व्याधियाँ

 

तृष्णा  :-

  • अस्वाभाविक रूप से उत्पन्न पिपासा जब बार-बार जल ग्रहण करने पर भी तृप्ति न हो तथा बार-बार जल की आकांक्षा बनी रहे उसे तृष्णा रोग कहते हैं।

 

विसूचिका (Cholera or Gastroenteritis):-

  • ऊर्ध्व तथा अधोभाग से प्रवृत्त आमदोष से उत्पन्न व्याधि को विसूचिका कहते हैं।

 

अतिसार (Diarrhoea):-

  • मल का अधिक मात्रा में निःसरण ही अतिसार है।

 

प्रवाहिका (Dysentery) :-

  • अहित भोजन करने वाले पुरूष की वायु बढकर संचित हुए कफ को गुदमार्ग से निकलने के लिए प्रेरित करते हैं।
  • पुनः-पुनः प्रवाहण करने से अल्प मात्रायुक्त मल कफ के साथ गुदमार्ग से बाहर निकलता है, इसे प्रवाहिका कहते हैं।

 

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