मनुष्य के जीवन काल में 3 एषणाएँ (इच्छाएँ) होती हैं –
- प्राण-एषणा
- धन-एषणा
- परलोक-एषणा
मनुष्य की आयु –
- सतयुग – 400 वर्ष
- त्रेतायुग – 300 वर्ष
- द्वापरयुग – 200 वर्ष
- कलयुग – 100 वर्ष
अनुबन्ध चतुष्ट्य –
- अभिधय
- प्रयोजन
- सम्बन्ध
- अधिकारी
सूत्रस्थान में चार प्रकार के सूत्रों का निर्देश किया गया है –
- गुरुसूत्र – गुरु अपने अभिमत से जिन वाक्यों को कहता है। जैसे – ‘नैतद् बुद्धिमता द्रष्टव्यमग्निवेश।’
- शिष्यसूत्र – गुरु के उपेदश के बाद शिष्य जिस सूत्र से अपनी शंकाओं को उपस्थित करता है । जैसे – ‘नैतानि भगवन् पञ्चशतानि पूर्यन्ते।’
- प्रतिसंस्कर्तृ सूत्र – जो प्रतिसंस्कर्ता के द्वारा उपस्थित किये जाते हैं, जैसे – ‘तमुवाच भगवानात्रेयः।’
- एकीयसूत्र – प्रसङ्गवश जब कभी किसी स्थान पर अन्य आचार्य के सिद्धान्त का उदाहरण दिया जाता है उसे कहते हैं, जैसे – कुमारस्य शिरः पूर्वमभिनिवर्तते इति कुमारशिरा भरद्वाजः।’
सूत्रस्थान में चार-चार अध्यायों के 7 वर्ग (चतुष्क) तथा आठवां वर्ग (संग्रह द्वय) दो अध्यायों का है।
1. भेषज चतुष्क | |
2. स्वास्थ्य चतुष्क | |
3. निर्देश चतुष्क | |
4. कल्पना चतुष्क | |
5. रोग चतुष्क | |
6. योजना चतुष्क | |
7. अन्नपान चतुष्क | |
8. संग्रह द्वय |
Trick - भेसनि करो योजना अन्नपान की
1. आयुर्वेदावतरण (इतिहास)
भरद्वाज का इन्द्र के यहाँ गमन
दीर्घं जीवितमन्विच्छन् भरद्वाज उपागमत् ।
इन्द्रमुग्रतपा बुद्ध्वा शरण्यममरेश्वरम् ॥3॥
- कठोर तपस्या करनेवाला दीर्घ जीवन की इच्छा रखता हुआ भरद्वाज ऋषि इन्द्र को शरण्य समझकर (अर्थात् जो उसके शरण में जाता है उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वे कष्ट को दूर करने में समर्थ हैं यह जानकर ) इन्द्र के पास गये।
उग्रतपा - भरद्वाज, महामति दीर्घतपा - धन्वन्तरि
आयुर्वेद के पठन-पाठन की परम्परा
ब्रह्मणा हि यथाप्रोक्तमायुर्वेदं प्रजापतिः ।
जग्राह निखिलेनादावश्विनौ तु पुनस्ततः ॥4॥
अश्विभ्यां भगवाञ्छक्रः प्रतिपेदे ह केवलम् ।
ऋषिप्रोक्तो भरद्वाजस्तस्माच्छक्रमुपागमत् ॥5॥
- जिस प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वेद का उपदेश ब्रह्मा ने किया था, उसे उसी रूप में ठीक-ठीक सर्वप्रथम दक्ष प्रजापति ने आयुर्वेद को ग्रहण किया था।
- इसके बाद दक्ष प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था।
- इसके बाद अश्विनीकुमारों से केवल (अर्थात सम्पूर्ण) आयुर्वेद का ज्ञान इन्द्र ने प्राप्त किया था।
- इसलिए ऋषियों के परामर्शानुसार महर्षि भरद्वाज आयुर्वेद अध्ययन के लिए इन्द्र के पास गए।
आयुर्वेदावतरण - B → D →A → I → भरद्वाज → आत्रेय → अग्निवेश
महर्षियों के एकत्र होने का कारण
विघ्नीभूता यदा रोगाः प्रादुर्भूताः शरीरिणाम् ।
तपोपवासाध्ययनब्रह्मचर्यव्रतायुषाम् ॥6॥
तदा भूतेष्वनुक्रोशं पुरस्कृत्य महर्षयः ।
समेताः पुण्यकर्माणः पार्श्वे हिमवतः शुभे॥7॥
- आयु पर्यन्त तपस्या, उपवास, अध्ययन, ब्रह्मचर्य, व्रत करने वाले देहधारी महर्षि समुदाय के लिए विघ्नस्वरूप अथवा तपस्या आदि न करने वाले मनुष्यों में विघ्नकृत् रोग जब उत्पन्न हो गए तब प्राणधारियों पर दया भाव को आगे कर पुण्य कार्य करने वाले महर्षिगण हिमालय पर्वत के एक सुन्दर भाग में एकत्रित हुए ।
महर्षियों की गणना
अङ्गिरा जमदग्निश्च वसिष्ठः कश्यपो भृगुः ।
आत्रेयो गौतमः सांख्यः पुलस्त्यो नारदोऽसितः ॥8॥
अगस्त्यो वामदेवश्च मार्कण्डेयाश्वलायनौ ।
पारीक्षिर्भिक्षुरात्रेयो भरद्वाजः कपिञ्जलः ॥9॥
विश्वामित्राश्वरथ्यौ च भार्गवश्च्यवनोऽभिजित् ।
गार्ग्यः शांडिल्यकौंडिन्यौ वार्क्षिर्देवलगालवौ ॥10॥
साङ्कृत्यो वैजवापिश्च कुशिको बादरायणः ।
बडिशः शरलोमा च काप्यकात्यायनावुभौ ॥11॥
काङ्कायनः कैकशेयो धौम्यो मारीचकाश्यपौ ।
शर्कराक्षो हिरण्याक्षो लोकाक्षः पैङ्गिरेव च ॥12॥
शौनकः शाकुनेयश्च मैत्रेयो मैमतायनिः ।
वैखानसा बालखिल्यास्तथा चान्ये महर्षयः ॥13॥
ब्रह्मज्ञानस्य निधयो दमस्य नियमस्य च ।
तपसस्तेजसा दीप्ता हूयमाना इवाग्नयः ॥14॥
सुखोपविष्टास्ते तत्र पुण्यां चक्रुः कथामिमाम् ।
- अङ्गिरा, जमदग्नि, वसिष्ठ कश्यप, भृगु, आत्रेय, गौतम, सांख्य, पुलस्त्य, नारद, असित, अगस्त्य, वामदेव, मार्कण्डेय, आश्वलायन, पारीक्षिः, भिक्षुआत्रेय, भरद्वाज, कपिञ्जल, विश्वामित्र, आश्वरथ्य, भार्गव, च्यवन, अभिजित्, गार्ग्य, शाण्डिल्य, कौण्डिन्य, वार्क्षि, देवल, गालव, सांकृत्य, वैजवापि, कुशिक, बादरायण, बडिश, शरलोमा, काप्य, कात्यायन, कांकायन, कैकशेय, धौम्य, मरीचि, काश्यप, शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, लोकाक्ष, पैङ्गि, शौनक, शाकुनेय, मैत्रेय, मैमतायनि, वैखानस, बालखिल्या और अन्य महर्षिगण जो ब्रह्मज्ञान, दम और नियम के निधि थे एवं हवन से प्रज्वलित अग्नि समान तपस्या के तेज से देदीप्यमान थे।
- ये महर्षि हिमालय के सुन्दर भूभाग में सुखपूर्वक सभा में बैठकर इस (वक्ष्यमाण) पुण्यकथा (लोकोपकार) की चर्चा करने लगे।
कुल महर्षियों की संख्या - 53 प्रथम महर्षि - अङ्गिरा आत्रेय तथा भिक्षु आत्रेय का वर्णन सूत्रस्थान के प्रथम अध्याय में है परन्तु कृष्ण आत्रेय का वर्णन सूत्रस्थान के ग्यारहवें अध्याय में है।