अनुकूल व्यवहार–निर्देश, समदृष्टिता का निर्देश,सम्मान करने का निर्देश, सम्भाव का निर्देश, मधुर भाषण निर्देश, भाषण विधि, विचारों को गुप्त रखें, परच्छन्दानुवर्तन

अनुकूल व्यवहार निर्देश

अवृत्तिव्याधिशोकार्ताननुवर्तेत शक्तितः ।

  • अवृतिकान् जिनकी कोई आजीविका नहीं हो, जो व्याधि एवं शोक से पीड़ित हो, उनकी चिकित्सा एवं आश्वासन आदि से यथाशक्ति सहायता करें ।

समदृष्टिता का निर्देश

आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकम् ॥23॥

  • कीट (वृश्चिक आदि कृमियों) तथा पिपीलिका (चींटी आदि क्षुद्र प्राणियों) को सदैव अपने समान समझना चाहिए, उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए।

सम्मान करने का निर्देश

अर्चयेद्देवगोविप्रवृद्धवैद्यनृपातिथीन् ।

  • देवता, गाय, विप्र (ब्राह्मण), वृद्ध, वैद्य, राजा तथा अतिथि (आगन्तुक) की पूजा करनी चाहिए अर्थात् सम्मान करना चाहिए।

विमुखान्नार्थिनः कुर्यान्नावमन्येत नाक्षिपेत् ॥24॥

  • याचक (अर्थिन:) को निराश (विमुख) नहीं करना चाहिए, उनका अपमान तथा तिरस्कार (आक्षेप) नहीं करना चाहिए।

उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेऽप्यरौ ।

  • (अरौ) शत्रु एवं अपकार करने में तत्पर का भी उपकार करना चाहिए, अर्थात् सबका उपकार करना चाहिए।

सम्भाव का निर्देश

सम्पद्विपत्स्वेकमना, हेतावीर्ष्येत्फले न  तु ॥25॥

  • सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (दु:ख) में एक समान रहना चाहिए।
  • किस कारण से सम्पत्ति मिली है और किस कारण से विपत्ति मिली है, इसका पता करें।
  • जिस कारण से विपत्ति मिली है उस कारण से द्वेष करना चाहिए, न कि विपत्ति से द्वेष करें।
  • दूसरे की सम्पत्ति को देखकर जलना नहीं चाहिए और दूसरे की विपत्ति को देखकर प्रसन्न नहीं होना चाहिए ।

मधुर भाषण निर्देश

काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम् ।

  • (काले) समय पर बोलें, (हित) हितकर बात कहें, (मित) थोड़ा बोलें, ऐसी बात कहें जो अविसंवादि (जिसका कोई विरोध न करे – सत्य) हो एवं (पेशलम्) मधुर बोलना चाहिए।

भाषण विधि

पूर्वाभिभाषी, सुमुखः सुशीलः करुणामृदुः ।।26॥  
नैकः सुखी,  न   सर्वत्र विश्रब्धो, न च शङ्कितः

  • पूर्वाभाषी (अभ्यागत के सामने सर्वप्रथम स्वयं कुशलमंगल  पूछने वाला), सुमुख (प्रसन्नमुख), (सुशील) पूज्यजनों की पूजा-सत्कार करनेवाला, दयालु, सरल स्वभाव वाला, अकेले सुखी न रहने वाला (अर्थात् अपने बन्धु-बान्धव-इष्टमित्रों सहित सुख का उपभोग करने वाला) होना चाहिए।
  • न ही सम विषयों में सबका (विश्रब्धः) विश्वास करे तथा न स्वजन, मित्र एवं भृत्य आदि पर शंका करे।

विचारों को गुप्त रखें

न  कञ्चिदात्मनः शत्रुं नात्मानं  कस्यचिद्रिपुम्॥27॥     
प्रकाशयेन्नापमानं  न  च  निःस्नेहतां  प्रभोः ।

  • अपने को किसी का शत्रु और दूसरे को अपना शत्रु न बतलाये।
  • अपने अपमान (तिरस्कार) तथा अपने प्रति प्रभो (स्वामी) की निष्प्रेमता को कहीं न कहे।

परच्छन्दानुवर्तन

जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा  परितुष्यति ॥28॥
तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः।

  • दूसरे के मन का अभिप्राय समझकर जो व्यक्ति जिस प्रकार संतुष्ट होता है, उसके साथ वैसा ही दान एवं प्रिय वचन आदि के द्वारा व्यवहार करना चाहिए
  • ऐसे को पराराधनपण्डित अर्थात् परस्पर अराधन में पण्डित कहा जाता है।
  • लोभी को पैसा देकर, क्रोधी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को जैसा वह कहता है वैसा मानकर प्रसन्न करना चाहिए।

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