शालाक्य तंत्र निरुक्ति, परिचय, इतिहास

शालाक्य तंत्र की निरुक्ति :-

शलाकया यत्कर्म क्रियते तच्छालाक्यम,

शलाकाप्रधानं कर्मशालाक्यम्,

तत्प्रधान तन्त्रमपि शालाक्यम्। (डल्हण)

  • शलाका द्वारा कर्म किये जाने के कारण इसे शालाक्य कहते हैं। शलाका प्रधान कर्म को शालाक्य कहते हैं, इसका प्रमुख तंत्र शालाक्य तंत्र कहलाता है।

दृष्टि विशारदाः शालाकिनः। (डल्हण)

  • नेत्र विद्या के चिकित्सकों को शलाकिन कहते हैं।


शालाक्य तंत्र का परिचय :-

  • आयुर्वेद के आठ अंगों में शालाक्य तंत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। सुश्रुत संहिता में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है।

  • वाग्भट ने इसका “उर्ध्वाङग” के नाम से उल्लेख किया है।

  • सुश्रुत ने 76 नेत्र रोग, 31 नासा रोगा, 28 कर्ण रोग, 11 शिरोरोग तथा 65 मुखरोगों का वर्णन किया है।

  • नेत्र, कर्ण नासा तथा शिरोरोगों का वर्णन उत्तर तंत्र में किया गया है। प्रथम 18 अध्याय में नेत्र रोगों तथा उनकी चिकित्सा का वर्णन है। 19 वें अध्याय में नयनाभिघात का वर्णन है।

  • उत्तर तंत्र के प्रथम 26 अध्यायों में शालाक्य तंत्र (नेत्र, कर्ण, नासा, शिर रोगों) का वर्णन किया गया है।

  • मुख रोगों का वर्णन निदान स्थान के 16 वें अध्याय में किया गया है तथा मुख रोगों की चिकित्सा का वर्णन चिकित्सा स्थान के 22 वें अध्याय में मिलता है।

  • वाग्भट ने उत्तर तंत्र में अध्याय 8 से 24 तक शालाक्य तंत्र का वर्णन किया है।

शालाक्य तंत्र की परिभाषा

“शालाक्यं नामोर्ध्वजत्रुगतानां श्रवणनयन वदनघ्राणादिसंश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्॥”         (सु.सू. 1/10)

  • जत्रु के ऊपर स्थित कान, आंख, मुख, नाक आदि स्थानों में उत्पन्न व्याधियों को चिकित्सा जिस विशेष विज्ञान में होती है उसे ‘शालाक्य तंत्र’ कहते हैं।

शालाक्य तंत्र का इतिहास :-

सूर्यवंशी अवध नरेश महाराज इक्ष्वाकु के कनिष्ठ पुत्र राजकुमार निमि अपने बड़े भाई ककुस्थ के राज्यभिषेक के समय अपने पिता का विशेष झुकाव अपने बड़े भाई की ओर देखकर विरक्त हो उठे तथा अवध को छोड़कर तिरहुत प्रदेश के महर्षि गौतम के आश्रम में पहुंच गए।

उस समय तक तिरहुत प्रान्त लंकापति रावण द्वारा जोता जा चुका था। रावण ने ऋषियों के यज्ञादि पावन कर्मों में व्यवधान उत्पन्न कर रखा था।

इस समय निमि को देख मुनिगण खुश हो गए। महर्षि गौतम ने निमि को दीक्षित कर लिया और तिरहुत के मुखिया महामुनि यमदग्नि ने उन्हें तिरहुत का प्रथम राजा घोषित कर दिया।

सभी राक्षस डर गए और मुनिगण निश्चिन्त होकर तपस्या में लग गए। एक समय इक्ष्वाकु पुत्र महाराज निमि ने अपने राज्य में महायज्ञ का आयोजन किया।

निमि ने वशिष्ठ जी को विशेष निमंत्रण दिया किन्तु वह इन्द्र द्वारा पहले हो आमंत्रित होने के कारण समय नहीं दे पाए तथा प्रतीक्षा करने को कहा। निमि ने कुछ काल बाद यज्ञारम्भ कर दिया। यह देखकर वशिष्ठ जी ने निमि को नष्ट होने का शाप दे दिया।

यज्ञ में उपस्थित देवताओं ने पुनः जीवित कर दिया परन्तु निमि ने देह धारण से इन्कार कर दिया, तो देवताओं ने नेत्रों की पलकों पर रहने का आदेश दिया। इसी कारण निमेष शब्द भी निमिपरक् माना गया है क्योंकि पलकों के खोलने व बन्द करने को निमेष कहते हैं।

रामायण में तुलसीदास जी ने कहा है –

      ‘भरी विलोचन चारू अचन्चल।                   मनहु सकुचि निमि तजेउ दृगंचला’

जानकी जी जब राम को देख रहे थे तो लज्जावश पलक निवासी निमि वहां से कुछ देर के लिए हट गए।

महर्षियों ने निमि की देह को मंथा, तब उनके शरीर से एक बालक उत्पन्न हुआ, जो जनक कहलाया, विदेह से उत्पन्न होने के कारण वैदेह और मन्थन करके उत्पन्न होने से मिथिल कहा गया जिसने मिथिलापुरी बनाई।

एक अन्य पौराणिक कथा शालाक्य के इतिहास के बारे में मिलती है जिसमें कि बताया है कि विदेह के राजा ने महायज्ञ आरम्भ किया।

उनको यज्ञ करते देखकर भगवान अंशुमाली उनके ऊपर कुपित हो गए तथा उनको दृष्टि शक्ति को नष्ट कर दिया. इसके बाद राजा जनक ने कठोर तपस्या की।

भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर उन्हें नेत्र रोग विज्ञान प्रदान किया।


वेदों में शालाक्य तंत्र :-

  • ऋग्वेद में आश्विनिद्वौ द्वारा रुजस्वक का अक्षि प्रत्यारोपण (Eye transplant) करना, कण्व को दृष्टि प्रदान करना, दधीचि के कटे सिर को जोड़ना आदि उद्धरण प्राप्त होते हैं।

  • यजुर्वेद में अर्म व मुखपाक रोगों का वर्णन मिलता है।

  • सूर्य साधक मंत्रों से नेत्रशक्ति वर्धन का उल्लेख नेत्रोपनिषद् में आया है।

  • अग्निपुराण में नासागत रक्तस्राव चिकित्सा हेतु दूर्वा स्वरस नस्य का वर्णन आया है।

  • नस्य द्वारा जीर्णशिरारोग का उपचार बौद्धकालीन चिकित्सक जीवक द्वारा वर्णित है। 

प्रमुख आचार्य :-

निमि-

  • शालाक्य तंत्र पर प्रथम विशेष ग्रंथ का लेखन आचार्य निमि द्वारा किया गया।

  • यह सहिता निमि तंत्र वा विदेह तंत्र के नाम से प्रसिद्ध है।

  • इतिहासकार निमि का काल चरक सुश्रुत से पूर्व का मानते हैं क्योंकि कतिपय स्थानों पर निमि के उद्धरणों की प्राप्ति सुश्रुत संहिता में होती है।

  • चरक संहिता में भी शारीरस्थान व सूत्रस्थान में राजा विदह का संदर्भ प्राप्त होता है।

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