Maha Sneha – Panch lavan – Asta mutra

 चार महास्नेह (four maha sneha) :-

सर्पिस्तैलं वसा मज्जा स्नेहो दिष्टश्चतुर्विधः ।

पानाभ्यञ्जनबस्त्यर्थ नस्यार्थं चैव योगतः

स्नेहना जीवना बल्या वर्णोपचयवर्धनाः ।

स्नेहा ते च विहिता वातपित्तकफापहाः ॥

  •  १ . घृत, २ . तैल, ३ . वसा और ४ . मज्जा – ये चार प्रकार के स्नेह बतलाये गये है ।
  • इनका प्रयोग पीने के लिए , मालिश के लिए, बस्ति के लिए और नस्य के लिए होता है ।
  • ये शरीर को स्निग्ध करते हैं, जीवनीयशक्ति (Vitality) को बढ़ाते हैं, बल को बढ़ाते हैं, वर्ण को निखारते हैं और शरीर के उपचय (संगठन) को बढ़ाते हैं ।
  • ये चारों वात, पित्त और कफ के प्रकोप को हटाते हैं ।

 

पाँच प्रकार के नमक :-

सौवर्चलं सैन्धवं च विडमौद्भिदमेव च ।

सामुद्रेण सहैतानि पञ्च स्युर्लवणानि च ॥

१ . काला नमक

२ . सेंधा नमक

३ . विड लवण

४ . रेह नमक

५ . सामुद्र नमक

लवणों के गुण –

  • ये पांचों प्रकार के नमक स्निग्ध , उष्ण , तीक्ष्ण और अत्यन्त अग्निदीपक होते हैं ।
  • इनका उपयोग लेप लगाने , शरीर के नीचे के तथा ऊपर के भाग के स्नेहन और स्वेदन करने , निरूह ( रुक्षवस्ति ) और अनुवासन (स्निग्धबस्ति) देने , मालिश करने , भोजन करने , शिरोविरेचन ( नस्य ) करने , शस्त्रकर्म , वर्ती बनाने , अञ्जन बनाने और उबटन लगाने में किया जाता है ।
  • अजीर्णरोग में, आनाह (अफारा) में, वातविकार में, गुल्म में, शूल और उदररोगों में; इन पाँचों लवणों का प्रयोग किया जाता है ।

मूत्रों के प्रकार –

१ . भेड़ का मूत्र ५ . हाथी का मूत्र
२ . बकरी का मूत्र ६ . ऊँट का मूत्र
३ . गोमूत्र ७ . घोड़े का मूत्र
४ . भैस का मूत्र ८ . गदहे का मूत्र

 

मूत्र क सामान्य गुण –

  • सब प्रकार के मूत्र सामान्यत: उष्ण, तीक्ष्ण , अरूक्ष , नमकीन और कटुरस वाले होते है ।
  • मूत्र उबटन , लेप , आस्थापन ( रूक्षबस्ति ) , विरेचन और स्वेद ; इन कर्मों में उपयोगी है ।
  • मूत्र का प्रयोग आनाह , अगद ( विषविकार ) , उदररोग , अर्शरोग , गुल्म , कुष्ठ और किलास (श्वित्र = सफेद कोढ़/Leucoderma) आदि रोगों में हितकर है ।
  • इसका उपयोग उपनाह ( पुल्टिस बनाने ) और परिषेक ( धोने ) में भी होता है ।
  • मूत्र अग्निप्रदीपक , विषनाशक और क्रिमियों को नष्ट करने वाला होता है ।
  • यह पाण्डु से पीड़ित रोगियों के लिए उत्तम आरोग्यदाता कहा गया है ।
  • अन्तःप्रयोग करने पर यह कफ को शान्त करता है , वायु का अनुलोमन करता है और पित्त को अधोभाग ( गुदमार्ग ) की ओर खींचकर निकाल देता है ।

तत्त्ववित् की परिभाषा

  • (रोगी की प्रकृति एवं दोष आदि के अनुसार) औषध की सम्यक् योजना करने वाला नाम और रूप से औषधों का ज्ञाता व्यक्ति ही ‘ तत्त्ववेत्ता ‘ (वास्तविक ज्ञानसम्पन्न) कहा जाता है।

 

श्रेष्ठतम भिषक् –

योगमासा तु यो विद्याद्देशकालोपपादितम् । पुरुषं पुरुषं वीक्ष्य स ज्ञेयो भिषगुत्तमः

  • जो वैद्य प्रत्येक रोगी की विधिवत् परीक्षा करके देश , काल ( दोष – औषध सात्म्य – बल – शरीर – आहार – प्रकृति – वय ) आदि का विचार कर तदनुसार औषधों के योग को जानता है , उसे ही श्रेष्ठ भिषक् ( उत्तम कोटि का चिकित्सक ) जानना चाहिए ।

छद्मचर वैद्य से औषध लेने का निषेध –

  • जहरीले साँप का विष पी जाना अच्छा है और उबाला हुआ ताँबा पी लेना अच्छा है अथवा आग में तपायी हुई ( लाल – लाल ) लोहे की गोलियाँ खा जाना भी अच्छा है , किन्तु विद्वान् शास्त्रज्ञ वैद्य की वेशभूषा धारण किये हुए छद्मचर अज्ञ वैद्य द्वारा दी हुई औषध का सेवन करना कथमपि ठीक नहीं है ।

योग्य औषध और श्रेष्ठ वैद्य –

तदेव युक्तं भैषज्यं यदारोग्याय कल्पते । स चैव भिषजां श्रेष्ठो रोगेभ्यो यः प्रमोचयेत् ।।

  • उसी औषध को युक्तियुक्त ( तथा सम्यक् प्रयुक्त ) जानना चाहिए जो रोगी को आरोग्य प्रदान करने में समर्थ हो और वही श्रेष्ठतम वैद्य है जो रोगी को रोगों से मुक्त करने में समर्थ हो ।


Charak Samhita – Upsaya – Samprapti

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