Charak Samhita – Moolini evum Phalini dravya

                                 
मूलिनी एवं फलिनी द्रव्य वर्गीकरण

 

द्रव्यों का वर्गीकरण :-

मुलिन्यः षोडशैकोना फलिन्यो विंशतिः स्मृताः ।।

महास्नेहाश्च चत्वारः पञ्चैव लवणानि च ।

अष्टौ मूत्राणि संख्यातान्यष्टावेव पयांसि च ॥

शोधनाश्च षड् वृक्षाः पुनर्वसुनिदर्शिताः ।

य एतान् वेत्ति संयोक्तुं विकारेषु स वेदवित् ॥

  • मूलिनी (जिनकी जड़ में उत्तम गुण होता है) सोलह हैं ।
  • फलिनी ( उत्तम गुणयुक्त फलवाली ) उन्नीस हैं ।
  • महास्नेह (उत्तम कोटि के स्नेह) चार हैं ।
  • लवण पाँच हैं ।
  • मूत्र और दूध आठ – आठ हैं ।
  • महर्षि पुनर्वसु ने संशोधन के लिए छः वृक्षों को बतलाया है ।

जो वैद्य इन औषधियों का रोगों में प्रयोग करना जानता है वही आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञाता ( आयुर्वेदवित् ) कहा जाता है ।


सोलह मूलिनी द्रव्य –

१ . हस्तिदन्ती ९ . गवाक्षी ( इन्द्रवारुणी )
२ . हैमवती ( वच ) १० . ज्योतिष्मती ( मालकांगनी )
३ . श्यामा ( काली निशोथ ) ११ . बिम्बी ( कुन्दरु )
४ . त्रिवृत् ( सफेद निशोथ ) १२ . शणपुष्पी ( सनई )
५ . अधोगुडा ( विधारा ) १३ . विषाणिका ( काकड़ासींगी )
६ . सप्तला ( सात धारा वाला सेहुँड ) १४ . अजगन्धा
७ . श्वेतनामा ( श्वेत अपराजिता ) १५ . द्रवन्ती
८ . दन्ती १६ . क्षीरिणी ( स्वर्णक्षीरी )

 

मूलिनी द्रव्यों के कर्म :-

  •  शणपुष्पी ( वनसनई ) , बिम्बी एवं वचा — इनकी जड़ वमन के लिए
  • श्वेता ( अपराजिता ) तथा मालकांगनी की जड़ का प्रयोग शिरोविरेचन ( नस्य ) के लिए करना चाहिए ।
  • शेष ग्यारह औषधियों की जड़ विरेचन कर्म के लिए प्रयोग योग्य हैं ।

फलिनी द्रव्य :-

१ . शंखिनी ११ . करज
२ . वायविडंग १२ .
३ . वपुष ( खीरा ) १३ . अपामार्ग
४ . मदनफल १४ . हरीतकी
५ . धामार्गव ( तरोई १५ . अन्त : कोटरपुष्पी
६ . इक्ष्वाकु ( तितलौकी ) १६ . हस्तिपर्णी
७ . जीमूत ( देवदाली ) १७ . कम्पिल्लक
८ . कृतभेदन ( तिक्त तरोई ) १८ . आरग्वध
९ . जलज मुलहठी १९ . कुटजन्य
१० . स्थलज मुलहठी

 

फलिनी द्रव्यों के प्रयोग :-

  • तरोई , इक्ष्वाकु , जीमूत , कृतभेदन , मदन , कुटज , त्रपुष एवं हस्तिपर्णी  इन आठ औषधियों का फल वमन और आस्थापन ( रूक्षबस्ति में करना चाहिए ।
  • नस्य के लिए अपामार्ग का प्रयोग करना चाहिए ।
  • शेष दश औषधियों के फलों का प्रयोग विरेचन के लिए कहा गया है ।


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