Prasuti Tantra Short notes

प्रसूति तंत्र (Prasuti tantra) के महत्वपूर्ण बिंदुओं का फटाफट Revision करने के उद्देश्य से वर्णन किया जा रहा है –

सभी Topic Exam Point of View से काफ़ी महत्वपूर्ण हैं – 

 

                      प्रसूति तंत्र (Prasuti tantra)

 

योनि आकृति –

शंखनाभ्याकृतियोनिस्त्र्यावर्ता सा प्रकीर्तिता।

तस्यास्तृतीये त्वावर्ते गर्भशय्या प्रतिष्ठिता ।। (सु. शा. 5/43)

 

  • योनि का निम्न भाग संकुचित तथा उर्ध्वभाग विस्तृत होता है जो कि शंख नाभि (मुख संकुचित एवं उर्ध्व भाग विस्तृत) से सामञ्जस्य रखता है।

 

आवर्त स्तर –

(Vagina की Mucus membrane में पायी जाने वाली Horizontal rugae)

1. भग – प्रथम आवर्त 

2. योनि नलिका – द्वितीय आवर्त

3. गर्भाशय – तृतीय आवर्त योनि स्थित नाड़ियाँ    (important)

 

भाव प्रकाश में योनिस्थ तीन नाड़ियों का वर्णन किया है –

1. समीरणा

2. चन्द्रमुखी एवं

3. गौरी

 

 

गर्भाशय स्थान

शंखनाभ्याकृतिर्योनिस्त्रयावर्ता सा प्रकीर्तिता।

तस्यास्तृतीयेत्वावर्ते गर्भशय्या प्रतिष्ठिता॥

गर्भशय्या गर्भस्तिष्ठति । (सु. शा. )

 

  • योनि के तृतीय आवर्त में गर्भशय्या का स्थान है।

 

गर्भाशय की आकृति

यथारोहितमत्स्यस्य मुखं भवति रूपतः ।

तत्संस्थाना तथारूपा गर्भशय्या विदुर्बुधाः॥ (सु. शा. 5/56)

  • गर्भाशय की आकृति रोहित मछली की तरह है, जिसका मुख छोटा है किन्तु आशय भाग बड़ा होता है।
  • गर्भाशय की स्थिति जल में स्थित रोहित मत्स्य की तरह (Freely mobile) होती है।

 

पेशी

  • लम्बी, चपटी, मृदु आवरक रचना, जो सिरा, स्नायु, अस्थि, पर्व एवं संधियों को बल प्रदान करती है, पेशी कहलाती है।

 

स्त्री जननाङ्गों में स्थित पेशियाँ

अपत्यपथ में चार

  • दो योनि मुख पर बाह्य स्थित (Sphinctor vaginae) एवं वर्तुलाकार।
  • दो आभ्यान्तर प्रसृत (Anterior and Posterior vaginal wall)

 

गर्भ छिद्र स्थित तीन

  • गर्भाशय के तीन भाग (Fundus, body and isthmus)

 

शुक्रार्तव प्रवेशिनी तीन

  • शुक्र प्रवेशिनी एक – (Cervix uteri)
  • आर्तव प्रवेशिनी दो – (Fallopian tubes)

 

आर्तववह स्रोतस्

आर्तववहे द्वे, तयोर्मूलं गर्भाशयं आर्तववाहिन्यश्च धमन्यः ।

तत्र विद्धायां बन्ध्यत्वं मैथुनासहिष्णुत्वं आर्तवनाशश्च ।।

                                                           (सु. शा. 9/22)

आर्तव शब्द से मासिक रक्त स्राव एवं स्त्री बीज दोनों का ही ग्रहण होता है। प्रथम अर्थ ग्रहण करने पर, आर्तववह स्रोतस् के मूल गर्भाशय एवं उसकी रक्तवाहिनियां है।

दूसरा अर्थ ग्रहण करने पर आर्तववह स्रोतस् के मूल गर्भाशय एवं बीजवाहिनियाँ है।

वेध के परिणाम बन्ध्यत्व, मैथुनासहिष्णुत्व एवं आर्तवनाश दोनों ही प्रकरण में समान है।

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