परिचय
परिचय
गण – शोथहर, शीतप्रशमन, अनुवासनोपग ( च. ) बृहत पंचमूल , वातसंशमन, वरुणादि( सु . )
कुल – निर्गुण्डी
कुल (Family) – Verbenaceae
लैटिन नाम – Premna mucronata
पर्याय
पर्याय
अग्निमंथ :- इसकी लकड़ियों को परस्पर रगड़ने से आग निकाली जाती है; यज्ञादि में ।
जय :- रोगों को जीतने वाला
श्रीपर्ण :- सुन्दर पत्रों वाला
स्वरूप
स्वरूप
- यह २५ -३० फुट ऊंचा वृक्ष होता है।
- इसकी काण्डत्वक् हलके धूसरवर्ण की होती है।
- इसके कांड और बड़ी शाखाओं पर कंटक होते हैं।
- पत्र – अभिमुख, २-६½ इंच लम्बे, अण्डाकार या लट्वाकार, दोनों सिरों पर पतले, निचले पृष्ठ पर रोमश, प्रायः लंबाग्र, ५-७ जोड़ी शिराओं से युक्त होते हैं । ये सूखने पर काले पड़ जाते हैं ,मसलने पर इनसे गंध आती है ।
- पुष्प – २-५ इंच व्यास की, त्रिधाविभक्त, रोमश होती है इसमें हरिताभ श्वेतवर्ण पुष्प लगते हैं ।
- फल – गोलाकार ,बैंगनी या काला, अग्र पर दबा हुआ, २-५ इंच व्यास का होता है।
जातियां
जातियां
अग्निमंथ | बड़ी अरणी |
तर्कारी | छोटी अरणी |
रस पंचक
रस पंचक
गुण |
रूक्ष, लघु |
रस |
तिक्त, कटु, कषाय, मधुर |
विपाक |
कटु |
वीर्य |
उष्ण |
प्रभाव |
– |
कर्म
कर्म
दोषकर्म:-
- यह उष्णवीर्य होने से कफवातशामक है।
संस्थानिक क्रम:-
- बाह्य – यह उष्ण होने से शोथहर तथा वेदनास्थापन होता है।
- आभ्यन्तर नाड़ीसंस्थान – यह नाड़ियों के लिये शामक तथा वेदनास्थापन है ।
पाचन संस्थान:-
- यह उष्ण होने से दीपन, पाचन एवं अनुलोमन है ।
रक्तवह संस्थान:-
- यह रक्त शोधक, हृदयोत्तेजक एवं शोथहर है ।
श्वसन संस्थान:-
- यह कफघ्न है।
मूत्रवहसंस्थान:-
- यह प्रमेहघ्न है।
त्वचा :-
- यह त्वगदोषों को दूर करता है।
सात्मीकरण:-
- यह कटुपौष्टिक है।
प्रयोग
दोषप्रयोग:-
- यह कफवातजन्य रोगों में प्रयुक्त होता है।
संस्थानिक प्रयोग:-
- बाह्य – शोथ और पीड़ा होने पर इसकी पत्तियों को गर्म कर बांधते हैं।
- आभ्यन्तर नाडीसंस्थान – यह वात व्याधि में बहुशः प्रयुक्त होता है ।
पाचन संस्थान:-
- यह अग्निमांद्य, आमदोष, विबन्ध आदि में दिया जाता है।
रक्तवह संस्थान:-
- यह रक्तविकार, हृद्यौर्बल्य तथा शोध में लाभकर है ।
श्वसनसंस्थान:-
- कफ के विकारों यथा कास, श्वास, प्रतिश्याय, आदि में देते हैं ।
मूत्रवहसंस्थान:-
- प्रमेह ,विशेषतः वसामेह और पूयमेह में यह उपयोगी है।
- अग्निमंथ के मूल का क्वाथ वसामेह एवं पूयमेह में दिया जाता है।
त्वचा :-
- शीतपित्त आदि त्वचा के विकारों में अग्निमंथ के मूल का कल्क सेवन कराते हैं।
सात्मीकरण:-
- ज्वरोत्तर दौर्बल्य, पाण्डु आदि में पत्रस्वरस तथा छाल का क्वाथ देते हैं।
प्रायोज्य अंग – पत्र, मूलत्वक्
मात्रा – चूर्ण – १-३ ग्राम
स्वरस – १०-२० मि॰ली॰
क्वाथ – ५०-१०० मि॰ ली॰
विशिष्ट योग – अग्निमंथकषाय, अग्निमंथमूलकल्क, दशमूलारिष्ट