4. रोगानुत्पादनीय अध्याय
जिस प्रकार का आचरण (आहार-विहार आदि) करने से रोगों की उत्पत्ति न हो अथवा जिस अध्याय में कहे जाने वाला विषय रोगों की उत्पत्ति को रोकने के लिए हितकारक है।
वेगों को रोकने का निषेध
वेगान्न धारयेद्वातविण्मूत्रक्षवतृटक्षुधाम् ।
निद्राकासश्रमश्वासजृम्भाश्रुच्छर्दिरेतसाम् ॥1॥
- वात (अधोवात/Flatus,
- विट् (पुरीष/Defecation),
- मूत्र (Micturition),
- क्षव (छींक/Sneezing),
- तृट् (प्यास/Thirst),
- क्षुधा (भूख / Hunger),
- निद्रा (Sleep),
- कास (खाँसी/Cough),
- श्रमश्वास (Breathing caused by over exertion),
- जृम्भा (जम्भाई/Yawning),
- अश्रु (आनन्दजं शोकजं वा नेत्रोदकम्/Lacrymation),
- छर्दि (वमन/Vomiting) तथा
- रेतस् (शुक्र/Semen) के वेगों को नहीं रोकना चाहिए।
अपानवायु का वेग को रोकने से हानि तथा उसकी चिकित्सा
अधोवातस्य रोधेन गुल्मोदावर्तरुक्क्लमाः ।
वातमूत्रशकृत्सङ्गदृष्ट्यग्निवधहृद्गदाः ॥2॥
- अधोवात का वेग रोकने से गुल्म (Abdominal tumour due to gaseous distension of instestinal coil), उदावर्त(Group of diseases caused by retention of various natural urges), रुक् (कोष्ठशूल), क्लम (सुस्ती) — ये रोग हो सकते हैं।
- अपानवायु, मूत्र एवं शकृत (पुरीष) की प्रवृत्ति में रुकावट आ सकती है।
- दृष्टिवध (दृष्टिनाश), अग्निवध (अग्निमान्द्य) तथा हृदोग उत्पन्न होते हैं।
- इसकी चिकित्सा स्नेहन, स्वेदन, फलवर्तियाँ, वातनाशक भोजन, उष्णोदक (गर्म जल) पान, बस्ति कर्म एवं जिस किसी क्रिया से वायु का अनुलोमन हो, वह कार्य करना प्रशस्त है।
पुरीष का वेग रोकने से उत्पन्न व्याधियाँ
शकृतः पिण्डिकोद्वेष्टप्रतिश्यायशिरोरुजः ।
ऊर्ध्ववायुः परीकर्तो हृदयस्योपरोधनम् ॥3॥
मुखेन विट्प्रवृत्तिश्च पूर्वोक्ताश्चामयाः स्मृताः ।
- पुरीष का वेग रोकने से पिण्डलियों में ऐंठन के समान पीड़ा, प्रतिश्याय, शिरोरुज (Headache), वायु की ऊर्ध्व प्रवृत्ति, परिकर्तिका (उदर में कैंची से काटने की-सी पीड़ा), हृदयगति में अवरोध तथा मुखमार्ग से पुरीष की प्रवृत्ति तथा अधोवायु को रोकने वाली व्याधियाँ होती हैं।
मूत्रवेगरोधज रोग
अङ्गभङ्गाश्मरीबस्तिमेढ्रवङ्क्षणवेदनाः ॥3॥
मूत्रस्य रोधात्पूर्वे च प्रायो रोगा: —
- मूत्र का वेग रोकने से अङ्गों का टूटने की सी पीड़ा(Malaise), अश्मरी (पथरी), बस्ति (मूत्राशय में), मूत्रमार्ग में, वंक्षणों (Lower abdomen) में वेदना तथा पुरीष एवं अधोवात के वेग को रोकने से उत्पन्न होने वाले पूर्वोक्त रोग होते हैं।
वेगरोधजन्य रोगों की चिकित्सा
— तदौषधम् । वर्त्यभ्यङ्गावगाहाश्च स्वेदनं बस्तिकर्म च ॥5॥
अन्नपानं च विडभेदि विड्ररोधोत्थेषु् यक्ष्मसु ।
- मलप्रवर्तनी तीक्ष्ण द्रव्यों की वर्ति को गुद में प्रवेश करें।
- उदर के ऊपर अभ्यंग, अवगाहन (तैल आदि से पूर्ण द्रोणी में स्नान), स्वेदन, बस्तिकर्म (मलद्वार से क्वाथ एवं तैल-द्रव्यादि का प्रयोग) तथा मल-भेदक अन्नपान (Laxative) का प्रयोग पुरीषरोधजन्य रोगों में करना चाहिए।
मूत्रवेगरोध जन्य रोगों की चकित्सा
मूत्रजेषु तु पाने च प्राग्भक्तं शस्यते घृतम् ॥6॥
जीर्णान्तिकं चोत्तमया मात्रया योजनाद्वयम् ।
अवपीडकमेतच्च संज्ञितं —
- मूत्रवेगरोधजन्य रोगों में ’अवपीडक घृत’ का सेवन करे अर्थात् भोजन (भक्त) के पूर्व एवं भोजन के पच जाने पर उत्तम मात्रा में घृतपान श्रेष्ठ है।
- इस प्रकार दो बार सेवन किए गये घृतपान को ‘अवपीडक’ कहते हैं।