Charak Samhita – kriyakal

                                                 
क्रियाकाल 

(1) प्रथम क्रियाकाल :  सञ्चय ( Accumulation ) :-

  • अनेकविध आहार – विहार से दोषों का अपने ही स्थान में संचय होता है,
  • इस दशा में दोषवर्धक एवं दोषसंचयकारक पदार्थों से द्वेष होता है, उनके विपरीत गुणवाले द्रव्यों के प्रति इच्छा होती है ।

(2) द्वितीय क्रियाकाल :प्रकोप ( Aggravation ):-

 

  • संचित हुए दोष जब अपने स्थान एवं मार्ग से विचलित होते हैं अथवा उन्मार्गगामी हो जाते हैं तो वे कुछ विशेष लक्षणों को उत्पन्न करते हैं।
  • इस अवस्था को प्रकोप या द्वितीय क्रियाकाल कहते हैं।

(3) तृतीय क्रियाकाल : प्रसर ( Spread ) :-

  •  प्रकुपित होने से उन्मार्गगामी दोष जब फैलने लगते हैं तो इसे तृतीय क्रियाकाल या प्रसर कहते हैं ।
  • इस अवस्था में दोषों के मार्ग का ज्ञान करना पड़ता है ।
  • दोषों की गतियों के अनुसार उनका मार्ग जाना जाता है ।
  • दोषों की गतियाँ तीन प्रकार की बतलायी गयी हैं , जो त्रिविध होने से नौ प्रकार की होती हैं ; जैसे

१. ऊर्ध्व ,२. अधः, ३. तिर्यक् ;

 

१. आभ्यन्तर रोगमार्ग, २. मध्यम रोगमार्ग ३. बहिः रोगमार्ग ;

 

१. शाखा,  २. कोष्ठ,  ३. मर्मास्थिसन्धि।


(4) चतुर्थ क्रियाकाल : स्थानसंश्रय ( Localization ):-

  •  जब प्रकुपित दोष प्रसरणशील हो जाते हैं तो वे ‘ खवैगुण्य ‘ होने से स्थान – विशेष पर दोष – दूष्यसम्मूर्च्छना ( संग ) को उत्पन्न करते हैं ।
  • इस प्रक्रिया को ‘ स्थानसंश्रय ‘ कहते हैं ।
  • इस अवस्था को पूर्वरूपावस्था भी कहते हैं ।

    स्रोतोदुष्टि – म्रोतोदुष्टि चार प्रकार की हो सकती है :-

१. अतिप्रवृत्ति ( Over activity )

२. संग Decreased activity )

३. सिराग्रन्थि ( Obstructive swelling )

४. विमार्गगमन ( Abnormal activity )


(5) पञ्चम क्रियाकाल : व्यक्ति ( Appearance of Disease ) :-

 

  •  पूर्व के चार क्रियाकाल सञ्चय, प्रकोप, प्रसर और स्थानसंश्रय – ये रोग की पूर्वरूपावस्था में आते हैं ।
  • जब दोष – दूष्यसम्मूर्च्छना के पश्चात् रोग के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं तब रोग प्रकट हो जाता है और इसे पञ्चम क्रियाकाल या ‘ व्यक्ति ‘ कहते हैं ।

1. प्रकृतिसमसमवेत :-

 

  • जब दो अलग – अलग रहने वाले द्रव्यों में जो गुण विद्यमान हों, वे ही गुण द्रव्यों के किन्हीं द्रव्यों के साथ संयुक्त होने में भी विद्यमान रहें तो उसे ‘ प्रकृतिसमसमवेत ‘ कहा जाता ।
  • जैसे – दूध, जल, चीनी इनको संयुक्त कर बनाये गये शबंत में भी मूल पदार्थों का माधुर्य बना रहता है।

2. विकृतिविषमसमवेत :- 

  •  जब दो या दो से अधिक द्रव्यों का एक में संयोग होता है तब वे विकृत होने में कारणभूत होकर अपने – अपने स्वाभाविक गुणों का परित्याग कर देते हैं, तो उसे ‘ विकृतिविषमसमवेत ‘ कहते हैं ।
  • जैसे — मछली एवं दूध का संयोग या समान मात्रा में मधु और घृत का संयोग ।
  • ये द्रव्य अलग – अलग गुण रखते हैं, वे गुण संयोग होने पर नहीं पाये जाते हैं।

(6) षष्ठ क्रियाकाल : भेद ( Chronicity of Disease ):-

  • विभिन्न लक्षणों की उत्पत्ति के बाद रोग व्यक्त होकर प्रकृति से भेद उत्पन्न करते हैं, अतएव इस अवस्था को ‘ भेद ‘ कहा जाता है।


Charak Samhita 1 – Dravya – Guna – Karma aur Samvaya

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