तृष्णा रोग ( Polydypsia )

  • तृष्णा रोगगत तथा पित्त दोष की दुष्टिजनित मानी गई है क्योकि वात का शोषण गुण तथा पित्त का अग्निप्रधान गुण होने से ये दोष तृष्णा की उत्पत्ति में सहायक है।
  • कुछ व्याधियों में तृष्णा लक्षण या उपद्रव के रूप में प्रकट होती है तथा रसजज्वर, रक्तज ज्वर, मान्सज ज्वर मेदज ज्वर, पित्तोदर, प्लीहोदर, बद्धोदर, जलोदर, विसूचिका, वातिक ग्रहणी, उदावर्त, हृदय रोग, पैत्तिक कास, आदि।

निरुक्ति / व्युत्पत्ति

तृष्णा शब्द ‘तृष ‘ धातु से निर्मित है जिसका अर्थ है – लोभ या आकांक्षा।

परिभाषा
  • अस्वाभाविक रूप से उत्पन्न पिपासा जब बार-बार जल ग्रहण करने पर भी तृप्ति न हो तथा बार-बार जल की आकांक्षा बनी रहे उसे तृष्णारोग कहते हैं।

निदान

1 .शारीरिक निदान –

१. अत्यधिक मद्यपान, अत्यधिक क्षार- अम्ल -लवण -कटु रस का सेवन ।
२. धातुक्षय
३. उष्ण, रूक्ष तथा शुष्कान्न का अतिसेवन ।
४. वमन विरेचनादि संशोधन कर्मों का अतियोग
५. अतिलंघन
६. मधुमेह , रक्तस्राव, तीव्रज्वर, तीव्र छर्दि, विसूचिका, अतिसार, जलोदर , आदि रोगों के कारण।

2. मानसिक निदान-
  1.  मानसिक क्षोभ
  2. भय, श्रम, शोक, क्रोधादि मानसिक भाव
3. आगन्तुक निदान-

सूर्य संताप तृष्णारोग की उत्पत्ति में प्रमुख आगन्तुक निदान है।

सम्प्राप्ति

1. सामान्य सम्प्राप्ति-
  • अति निदान सेवन से पित्त तथा वात प्रकुपित होकर शरीर की सौम्य (जल प्रधान) धातुओं का शोषण कर देते हैं। तत्पश्चात जिह्वामूल , गला, तालु तथा क्लोम स्थित रसवाहिनी नलिकाओं को शोषित कर तृष्णारोग की उत्पत्ति करते हैं।
  • भयंकर व्याधि से कृशित व्यक्ति में तृष्णाधिक्य पाया जाता है । यह उपद्रव स्वरूप तृष्णा उपसर्गज तृष्णा कहलाती है।
2. विशिष्ट सम्प्राप्ति-
१. संप्राप्ति चक्र-

२. सम्प्राप्ति घटक-
दोष – वात तथा पित दोष
दूष्य – उदक
स्रोतस– उदकवह स्रोतस
स्रोतोदुष्टि लक्षण – विमार्ग गमन
अधिष्ठान – तालु क्लोमादि
आशय – आमाशयोत्थ व्याधि
स्वभाव – आशुकारी

भेद

भिन्न भिन्न आचार्यों ने तृष्णा रोग के निम्न भेद बताए हैं-
क्र.सं.
चरकानुसार
सुश्रुतानुसार
वाग्भटानुसार
१. वातज वातज वातज
२. पित्तज पित्तज पित्तज
३. आमज कफज कफज
४. क्षयज क्षयज सन्निपातज
५. उपसर्गज क्षतज आमज
६.       – आमज क्षयज
७.       – अन्नज उपसर्गज

पूर्वरूप

आचार्य सुश्रुत मतानुसार तृष्णारोग के निम्न पूर्वरूप होते हैं-
१. मुखशोष ( dryness of mouth )
२. तालु, ओष्ठ, कंठ व मुख्य शुष्कता ( dryness of throat)
३. दाह (Burning sensation)
४. संताप ( burning pain )
५. मोह (delirium)
६. भ्रम ( dizziness)
७. प्रलाप (delirium)

लक्षण

आचार्य चरक ने तृष्णारोग के निम्न लक्षण बताए हैं-
१. मुखशोष (dryness of mouth)
२. स्वरभेद (hoarseness of voice)
३. भ्रम (vertigo)
४. संताप (Burning sensation)
५. प्रलाप (delirium)
६. संस्तम्भ (confusion )
७. ओष्ठ, तालु तथा जिह्य शोष (dryness of lips throat and tongue)
८. मूर्छा (fainting)
९. मर्मपीडा (pain in vital organs)
१०. जिव्हा का बाहर निकलना (protrusion of tongue)
११. अरुचि (anorexia)
१२. शरीर शैथिल्य (looseness of the body)
१३. बाधिर्य (deafness)
भेदानुसार विशिष्ट लक्षण

1. वातज तृष्णा के लक्षण

  1. निद्रानाश ( insomnia)
  2. भ्रम (vertigo)
  3. मुखविरसता (bitter taste of mouth)
  4. स्रोतावरोध(obstruction in microcirculatory channels)

2. पित्तज तृष्णा के लक्षण

  1. तिक्तास्यता (bitter taste of mouth)
  2. शिरोदाह (burning sensation in head region)
  3. शीतल वस्तुओं के सेवन की इच्छा होना (urge to take cold drinks)
  4. मूर्च्छा (fainting)
  5. मल-मूत्र, नेत्र का पीतवर्णी होना (yellowish discolouration of stool, urine, nails etc.)

उदकवह स्रोतस की व्याधियां

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