चरक संहिता (पूर्वार्द्ध)

Charak Samhita – aaragvadh – 3

(16) कोलादि लेप :- बेर, कुलथी, देवदारु, रास्ना, उड़द, तैलफल – सरसों, एरण्डबीज, तिल आदि, कूठ, वच, सौफ, यव का चूर्ण – इन सबका चूर्ण लेकर काञ्जी में पीसकर सुखोष्ण बनाकर वातरोग से पीड़ित व्यक्ति का लेप करायें । यह वातहर लेप है। (17) वातहर लेप :- जलेचर पशु – पक्षियों का मांस और समभाग […]

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Charak Samhita – aaragvadh – 2

(7) कुष्ठादि लेप :- कूठ , हल्दी , दारुहरिद्रा , सुरसा , पटोल , नीम , अश्वगन्धा , सुरदारु , शिग्रु , सर्षप , तुम्बरु , धनिया , वन्य ( केवटी ) तथा चण्डा — इन सबको समान भाग लेकर चूर्ण कर लें । फिर चूर्ण को मढे के साथ घोट लें । तत्पश्चात् रोगी

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Charak Samhita – kriyakal

                                                  (1) प्रथम क्रियाकाल :  सञ्चय ( Accumulation ) :- अनेकविध आहार – विहार से दोषों का अपने ही स्थान में संचय होता है, इस दशा में दोषवर्धक एवं दोषसंचयकारक पदार्थों

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Charak Samhita 1 – Dravya – Guna – Karma aur Samvaya

    द्रव्य – गुण – कर्म और समवाय का वर्णन I. द्रव्य वर्णन (Description of Dravya):-              “खादीन्यात्मा मनः कालो दिशश्च द्रव्यसंग्रहः । सेन्द्रियं चेतनं द्रव्यं , निरिन्द्रियमचेतनम् ।” आकाश आदि ( आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी ) पञ्चमहाभूत द्रव्य तथा आत्मा , मन ,

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Charak Samhita – Moolini evum Phalini dravya

                                    द्रव्यों का वर्गीकरण :- मुलिन्यः षोडशैकोना फलिन्यो विंशतिः स्मृताः ।। महास्नेहाश्च चत्वारः पञ्चैव लवणानि च । अष्टौ मूत्राणि संख्यातान्यष्टावेव पयांसि च ॥ शोधनाश्च षड् वृक्षाः पुनर्वसुनिदर्शिताः । य एतान् वेत्ति संयोक्तुं विकारेषु स वेदवित् ॥ मूलिनी (जिनकी

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Charak Samhita – Samprapti ke bhed

  संख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषैर्भिद्यते  १. संख्या २. प्राधान्य ३. विधि ४ . विकल्प ५. बल काल – विशेष भेद से ५ प्रकार की होती है । (1) संख्या सम्प्राप्ति :- संख्या तावद्यथा – अष्टौ ज्वराः, पञ्च गुल्माः, सप्त कुष्ठान्येवमादिः  संख्या, जैसे — आठ ज्वर, पाँच गुल्म, सात कुष्ठ आदि । (2) प्राधान्य  सम्प्राप्ति :- प्राधान्यं पुनर्दोषाणां तरतमाभ्यामुपलभ्यते

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Charak Samhita 1 – Rasa

दशविध परीक्ष्य :- कारण करण कार्ययोनि कार्य कार्यफल अनुबन्ध देश काल प्रवृत्ति उपाय वात के गुण और चिकित्सासूत्र – रूक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः । विपरीतगुणैर्द्रव्यैर्मारुतः सम्प्रशाम्यति ।। रूक्ष, शीत, लघु (हलका), सूक्ष्म, चल (गतिशील), विशद और खर ये वायु के गुण हैं । वह उक्त गुणों के विपरीत (स्निग्ध , उष्ण , गुरु

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उदकवह स्रोतस की व्याधियां || udakvah sarotas diseases

उदकवहानां स्रोतसां तालुमूलं क्लोम च, प्रदुष्टानां तु खल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति, तद्यथा- जिह्वाताल्वोष्ठकण्ठक्लोमशोषं पिपासां चातिप्रवृद्वां दृष्टोदकवहान्यल्य स्रोतांसि प्रदुष्यनीति विद्यात्। (च. वि. 5/8) उदकवह स्रोतस का मूल तालु व क्लोम हैं। आचार्य चरक मतानुसार उदकवह स्रोतस के दुष्ट होने पर जिह्वा, तालु, ओष्ठ, कण्ठ, क्लोम, शोष तथा अति प्रवृद्ध पिपासा उत्पन्न होती है। उदकवहे द्वे, तयोर्मूलं तालु

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Charak Samhita – Upsaya – Samprapti

उपशय (Therapeutic Suitability) :- उपशयः पुनर्हेतुव्याधिविपरीतानां विपरीतार्थकारिणां चौषधाहारविहाराणामुपयोगः सुखानुबन्धः   १. हेतुविपरीत २. व्याधिविपरीत ३. हेतु – व्याधि उभयविपरीत ४. हेतुविपरीतार्थकारी ५ .व्याधिविपरीतार्थकारी ६. हेतु – व्याधि उभयविपरीतार्थकारी औषध, अन्न तथा आहार के परिणाम में सुखप्रद उपयोग को उपशय कहते हैं ।   उपशय – भेदबोधक सारणी (१) हेतुविपरीत शीत कफज्वर में शुण्ठी आदि उष्ण

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Charak Samhita 1 – Ayurveda ka Adhikarana – Ayurveda ka paryojan – Dosha

                                             प्रयोजनं चास्य स्वस्थ्यस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च ।   This Post contains a brief description on :- त्रिदण्ड और आयुर्वेद का अधिकरण आयुर्वेद का प्रयोजन रोगों के त्रिविध हेतु दोष एवं उनका चिकित्सासूत्र त्रिदण्ड

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